सोमवार, 28 जनवरी 2013

मेढ़ों पर .

ऊंची , टेढ़ी , मेढ़ों पर हँसते हंसाते , लुढ़कते लुढ़काते
बचपन में बहनों के संग समझी नहीं मैं उन मेढ़ों का होना ,
जीवन में घेरों का होना , सीमित असीमित होना , हदों का होना न होना
कहाँ सोचती थी मैं इन गहरी बातों के बारे में , विचारों के बारे में
गिरते पड़ते , खरोंचें खाते , मेढ़ों पर मस्ती में चलते रहे .

खुला सा , झिरझिरा सा रखा था , अपने को
रखा भी नहीं था , बनाया ही ऐसा था
कि सुराखों से सूरज रौशनी पहुंचाता रहा
हवाएं सौन्धाहट फैलाती रहीं
दुनिया भर का प्यार रिसता रहा , बहता रहा .

कैसे दीवारें उठीं , परिसीमायें बनीं
कैसे अगम्यता बढ़ी , संकीर्णता पैदा हुई
ज़ख्म उगे और भरे .... साथ ही भर गए सुराख
ऐसे कि सूरज की किरनें उलटे पैरों लौटने लगीं
हवाओं का रुख भी बदल गया , गीत अक्षुत रह गए , स्वप्न ओझल हो गए .

पर अन्दर कुछ था जो धड़कता रहा , मिटने के नाम से भड़कता रहा
ओजस जो उकसाता रहा , नूर जो चमकता रहा
जीने की ऐसी लालसा , जो मरने न दे .
खुद को जिसने देखने को मजबूर किया , खुद को पहचानने पर लाचार किया
समझाया कि बुरी नहीं सीमाएं , सीमा बांधनी प्रतिबंधक हो सकती हैं .
अस्तित्व स्थापित करना अरुचिकर नहीं ...
न ही बुरा है आत्मसम्मान की नींव बोना .

हदों से डरो भी मत , खीजो मत
और इतना भी सुराखदार न हो जाओ कि आंधियां उड़ा ले जायें
कुछ हदें तुम्हें परिभाषित करती हैं , निखारती हैं ...
किन्तु अब दोबारा उठो .... अपरिमित हो जाओ
खुला सा , बेमियादी सा बन जाओ ,
तुम्हारा स्वरुप ही असीमितता है .

और धीरे से दोबारा , ऊंची , टेढ़ी , मेढ़ों पर चलना शुरू कर दिया मैंने
खुलकर हँसना हँसाना , उभरना , पनपना
करुनानन्दित , आनंदित होना ... बातों में महसूसना मिठास भी सीख लिया है फिर से

मुझे तो अब फैलना ही है क्षितिज पर , मिल ही जाना होगा आकाशवृत में
कि मैं अनंत की रचना हूँ , आदि की परिकल्पना हूँ .

- अनुराधा ठाकुर .












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