मंगलवार, 15 जनवरी 2013

सोचते हैं / Comprehensions .



हमारी सोच , हमें जहाँ चाहो वहां पहुंचा देती है ... जहाँ न चाहो , वहां भी , वो भी बिजली की रफ़्तार से । सारा दिन भटकती है ... कभी छूटी हुई गलियों की धूल फांकती है , कभी उन ख्यालों की पतंगें उडाती फिरती है , जिन्हें  हकीकत की ज़मीन शायद ही नसीब हो । शरीर को बाँधा जा सकता है , मगर सोच को बांध सके ऐसी कोई ज़ंजीर कहाँ !
     महान फ्रेंच दार्शनिक रेने डेसकार्टेस ने कहा था - " I Think , Therefore I Am ."
सोच न होती तो आदमी और आदमीअत आज इस मकाम तक न पहुंचे होते । हाँ, ये ज़रूर सोचने का मसअला है कि क्या यही वो मकाम है जहाँ पहुँचने के लिए सफ़र शुरू किया था ।
       ये हमारी सोच ही है जो हमें बनाती है या मिटाती है , ज़िन्दगी को मायने देती है या बेमानी बना देती है ।
            " फलसफा ज़िन्दगी का मुश्किल है 
               वैसे मजमून इख्तियारी है ."
ज़िन्दगी का फलसफा हम पढ़ते हैं अपने तज़र्बों से , और जीते हैं अपनी सोच के मुताबिक़ ।  सोच से ही कोई आशावादी ठहराया जाता है , तो कोई निराशावादी । गिलास जो एक को आधा भरा हुआ नज़र आता है , दूसरे को आधा खाली दिखाई पड़ता है ... गौरतलब ये है , कि ये दोनों ही बातें अपनी-अपनी जगह सच हैं । फर्क क्या पड़ता है , अगर पानी न घटता है , न बढ़ता है । सच तो एक ही है ... सोच अलग ... और तमाम झगडे इस सोच के फर्क से पैदा हो जाते हैं ।
आज चिरंतन में , चलिए कुछ सोचते हैं ...

                  - मीता .
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इनकी कलम से -

सोचते हैं वो ...

सोचते हैं वो कि मुझे तोड़ कर
मेरे हिस्सों से कुछ जोड़ सकेंगे .
सोचते हैं वो की मुझे रुला कर
मेरे आंसुओं से कुछ सींच सकेंगे .
सोचते हैं वो कि मुझे डरा कर
मेरी चुप्पी से कुछ चैन पायेंगे .

नहीं जानते हैं वो कि
मेरे चुप होने में मेरी ताकत है .
मेरे आंसू मेरी बुनियाद सींचते हैं .
नहीं जानते हैं वो कि
मैं चुप रह कर भी कोलाहल पैदा कर सकती हूँ
अपने खौफ को अपनी ताकत में बदल सकती हूँ .

सोचते हैं वो , मगर वाकिफ नहीं कि
टूट कर मैं उस हवा में घुल चुकी हूँ
जिस से उन्हें सांसें मिलती हैं .

मैं एक ऐसी खुशबू में तब्दील हो गयी हूँ
कि न खोती हूँ , न बिखरती हूँ , न कहीं और जाती हूँ .
मैं वहीँ हूँ जहाँ वो हैं ...
मैं वो ही हूँ जो वो हैं ...
मैं रोज़ उन्हें आईने में नज़र आती हूँ .

--------------- और ----------------------------

सदैव साथ .

आज तुम्हें फिर बादलों के बीच देखा मैंने ,
सफ़ेद बर्फ की चादर में लिपटे हुए देखा ,
आज फिर तुम्हें पेड़ों के पीछे कुछ गुनगुनाते हुए सुना .

ढलते सूरज के साथ चिढाते हुए , समंदर में क्यों दुबकी लगायी तुमने ?
सुबह नर्म किरणों से क्यों छेड़ा फिर मुझे ?
गीली बारिश के छींटे मार कर छुप गए तुम ?
और सोचा कि मैदान में लेट कर समय बर्बाद करते हुए नहीं पाउंगी तुम्हें ?

मेरी परछाईं से तो तुम्हारा पुराना बैर है .
रोज़ झगड़ते हुए , पूछते हुए सुनती हूँ कि 
कभी आगे , कभी पीछे क्यों चलती है वो 
अगर साया है तो साथ क्यों नहीं चलना आता उसे .

पतझड़ के हरे , लाल , पीले पत्तों में ,
बसंत की फूलों लदी क्यारियों में ,
हवा में बिखरी सुगंध में
दिए की लौ में
अंधियारे के गहरे काले में
हर जगह , हर पल तुम्हें पाती हूँ मैं .

तुम हो तो मुस्कुराती हूँ मैं .
तुम्हें हर जगह अब देख लेती हूँ .
उदासी में याद करती हूँ कि अकेली नहीं
परेशानी में सोच लेती हूँ कि
तुम्हारी परेशानी है ... मुझे क्या !
वरना क्यों चलते साथ-साथ
सदैव साथ .


  - अनुराधा ठाकुर .

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सोचती है ...

कल कुछ पन्ने हवा में
फड़ फडा रहे थे....
शायद कुछ कह रहे थे
अपनी ही बाते कर रहे होंगे
वो चंद पन्ने थे बस..
हवा में उड़ जाना चाहते थे
फ़ैल जाना चाहते थे हर कोने में

आसमान का कोई कोना नहीं न
परेशान थे वो बहुत..
किताबो का बंधन छूटता भी नहीं
और बँधकर जीना भी मुश्किल था


किताबें भी आजकल सोचती है
उड़ान भरने की .
पता है न उन्हे भी
इंसान मन से बौना हो गया है .

- नीलम समनानी चावला .

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तुझको सोचा है ...

तुझको सोचा है ...
तो अकसर यों हुआ
किसी अलमारी में कपड़ों तले दबी रक्खी
कोई पुरानी एल्बम खुल गयी है ,
तेरी तस्वीर निकल आई है .

तेरा चेहरा , वो धूप सा चेहरा ,
तेरी बातें , वो गुनगुनाती हवा ,
तेरा होना कि मौसम ए बहार का होना .
तेरी तस्वीर का रंग
अब भी धुन्धलाया नहीं है .

वक़्त की हदों से परे ,
जिस्म की सरहदों से परे ,
धडकनों के मुसलसल शोर से दूर ,
दिमाग की तनी नसों से परे ...
अजब सुकून है तेरी कुर्बत  .
सोचना तुझको -
इक इबादत है .

------------ और ---------------

सोचने से अगर ...
सोचने से अगर
मौसम का रूख़ बदल सकता ,
आंधियों में बुझा चराग़
फिर से जल सकता ...
सोचने से अगर
जो हुआ वो मिटा सकते ,
मरे हुए तआल्लुकात
फिर जिला सकते .
तो बेशक सोच लेते गए हुए सालों को ,
और लिख लेते मन मुताबिक़ दास्तां अपनी .

यों तो मालूम है ,
गए दिनों को सोचने से
कुछ भी हासिल नहीं होता
उदासियों के सिवा ...
मगर फिर भी
हम बार बार मुड़ के देखते हैं ,
हथेलियों से फिसल कर कहीं जो छूट गया
बार बार ,
ठहर कर उसी को सोचते हैं .

       - मीता .
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तुम्हें सोचना .

तुम्हें सोचना
है 
तुम्हारी आँखों को समंदर सोचना 
और गहरे डूब जाना .

तुम्हें सोचना 
है 
जुगनुओं , तितलियों , गुलाबी फूलों की क्यारियाँ सोचना 
और बौराना .

तुम्हें सोचना
है 
भीगे गुलाबी होठों को छूने की पुरजोर कसमसाहट 
बमुश्किल रोक पाना .

तुम्हें सोचना 
है 
तुम्हें याद रखना 
खुद को भूल जाना .

- प्रलभ .

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सोचते सोचते ... 
ख़याल के कुछ नक्श यों उभरे .
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सोचतें हैं कच्ची पक्की पगडंडियों पर दौड़ती जिन्दगी को जब चौड़ी सपाट सड़क मिल जाती है ,तो और मुश्किल क्यों  लगने लगती है जिन्दगी , क्यों स्मृतियों में कसक सी बसी रह जाती है वो ओस पकी पगडंडियों की सोंधी सी महक ?सोचतें है कि पहाड़ों से उतर कर मैदानों की तरफ आते हुए जब छंटने लगता है कुहासा तब क्यूँ चुभने लगती है रौशनी ?..... सोचतें हैं की सीली लकड़ियों भी तो हैं प्रकाश और उश्मावाही हैं फिर क्यूँ नहीं झिलमिलाती सितारों की तरह ? क्यूँ धुवें को अभिशप्त हैं वो ?
सोचतें है वाकई हमें क्या चाहिए ....ओस पकी सोंधी पगडंडियाँ या चौड़ी सड़क ...कुहासा या रौशनी ! बनना क्या चाहते हैं हम , धुवें के साथ सुलग कर , चूल्हे मैं जलकर किसी की भूख मिटाने वाली सीली लकड़ी या झिलमिलाता  सितारा ?
सोचतें है ....

------- और ---------


सोचते हैं ...

तीज पूजी
अहोई आठे
चौथ पूजी
छठ पूजी
मजबूत कलियों को पकड़
रक्षा का सूत्र बाँधा
तिलक किया
लम्बी उम्र की कामना में
कभी बरगद
तो कभी पीपल
के फेरे लिए
मांग मांगी
कोख मांगी 
पुत्र और भरतार माँगा
तप माँगा
ओज माँगा
युद्ध में
रण में
विजय में
तेज माँगा !
खुद जली
ब्रह्माण्ड सारा
राख कर डाला .

सोचते हैं
हम कहा पर थे सही
और हमारी
कहाँ पर हैं
गलतियां ...
अब हमें ये
जीर्ण शीर्ण
विदीर्ण
तस्वीर बदलनी होगी
थाम कर
नाज़ुक कलाई को
बाँध दो अब
सूत्र रक्षा के नए 
गढ़ेंगे हम
व्रत नए
अनुष्ठान नए
हंसी माँगे
ख़ुशी माँगे
भाव माँगें
दया माँगें
प्रेम माँगें
सरलता की
तरलता की
धैर्य की प्रतिमूर्ति-
बेटियां माँगें दुआ में .

देखना फिर एक दिन
तस्वीर का रुख बदल जाएगा 

- मृदुला .

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Masters ( हिंदी )

               ग़ज़ल 

कहाँ सैराब करना है , नदी ने सोच रक्खा है
मिरे बारे में सब कुछ ज़िन्दगी ने सोच रक्खा है .

मैं क्यों उलझा हुआ हूँ बेसबब सम्तों के चक्कर में
कहाँ ढूंढेंगी मुझको , गुमरही ने सोच रक्खा है .

मुझे हर पल बिखरता देखना ख्वाहिश उसी की थी
उसी का मसअला है ये , उसी ने सोच रक्खा है .

अभी कुछ वक़्त है एहसास को इज़हार होने में
सदा में कब ढलेगी , खामशी ने सोच रक्खा है .

मुझे खुद भी नहीं मालूम किस सूरत में उभरूंगा
मिरा चेहरा , मेरी बेचेहरगी ने सोच रक्खा है .

अँधेरे कौन से रखने हैं और किन को मिटाना है
हर इक शब् का मुकद्दर रौशनी ने सोच रक्खा है .

सराबों के मनाज़िर में की इक दरिया के साहिल पर
कहाँ जा कर बुझेगी तश्नगी ने सोच रक्खा है .

    - खुशबीर सिंह 'शाद' .

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सोचता हूँ ...

सोचता हूँ कि मुहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना ए तरगिब ओ तमन्ना कर लूं .

सोचता हूँ कि मुहब्बत है जुनूं ए रसवा
चंद बेकार से बेहूदा ख्यालों का हुजूम
एक आज़ाद को पाबन्द बनाने की हवस
एक बेगाने को अपनाने की शै ए मौहूम .

सोचता हूँ कि मुहब्बत पे कड़ी शर्तें हैं
इस तमाद्दुम में मसर्रत पे बड़ी शर्तें हैं ...
पर
सोचता हूँ कि मुहब्बत है सुरूर ए मस्ती
इसकी तनवीर में रौशन है फ़ज़ा ए हस्ती

सोचता हूँ कि मुहब्बत है बशर की फितरत
इसका मिट जाना , मिटा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूँ कि मुहब्बत से है ताबिंदा हयात
आप ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है .

- साहिर लुधियानवी .

( curtsey Dr. Vandana Khanna )
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सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

मिलजुलकर हम दोनों सोचें
दरहम बरहम दोनों सोचें
ज़ख्म का मरहम दोनों सोचें
सोचें , पर हम दोनों सोचें .

घर जलकर राख हो जाएगा
जब सब कुछ ख़ाक हो जाएगा
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

ईंट और पत्थर राख हुए हैं
दीवार और दर राख हुए हैं
उनके बारे में कुछ सोचो
जिनके छप्पर राख हुए हैं

बे - बाल और पर हो जायेंगे
जब खुद बेघर हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

बेघर और मजबूर मरे हैं
मेहनतकश मजदूर मरे हैं
अपने घर की आग में जल कर
गुमनाम और मशहूर मरे हैं

एक क़यामत दर पर होगी
मौत हमारे सर पर होगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

कैसी बदबू फुट रही है
पत्ती - पत्ती टूट रही है
खुशबू से नाराज़ हैं कांटे
गुल से खुशबू रूठ रही है

खुशबू रुखसत हो जाएगी
बाग़ में वह्शत हो जायेगी
तब सोचेंगे ?
सोचो ! आखिर कब सोचेंगे .

माँ की आहें चीख रही हैं
नन्ही बाहें चीख रही हैं
कातिल अपने हमसाये हैं
सूनी राहें चीख रही हैं

रिश्ते अंधे हो जायेंगे
गूंगे बहरे हो जायेंगे
तब सोचेंगे ?
सोचो आखिर कब सोचेंगे .

     - डॉ नवाज़ देवबंदी .

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Masters ( English )-

      DESPONDENCY.

The thoughts that rain their steady glow
Like stars on life's cold sea,
Which others know, or say they know --
They never shone for me.
Thoughts light, like gleams, my spirit's sky,
But they will not remain.
They light me once, they hurry by,
And never come again.

  - Matthew Arnold .
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A thought went up my mind today .



A Thought went up my mind today -
That I have had before -
But did not finish — some way back -

I could not fix the Year -

Nor where it went — nor why it came
The second time to me -
Nor definitely, what it was -
Have I the Art to say -

But somewhere — in my Soul — I know 
I've met the Thing before -
It just reminded me — 'twas all -
And came my way no more -

       - Emily Dickinson .
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सरगम -

जो दिखता है, वो होता क्यूँ नहीं है ,
सोचा तो हर तस्वीर का चेहरा बदल गया !
सरगम में आज आप के लिए देखने और सोचने के फर्क को बहुत गहराई से बयां करती जावेद अख्तर जी की लिखी ये खूबसूरत नज़्म . 

3 टिप्‍पणियां:

मनस्वी ने कहा…

मीता जी .......सोच रही हूँ की कितना कुछ समान है ..आप की विचारधारा ने बहुत प्रभावित किया सच ...सच है मीता जी शरीर को बाँधा जा सकता है लेकिन सोच को नहीं ...मन की कहें तो बहुत पसंद आया आपका ब्लॉग ...समयाभाव के कारण मैं कम प्रयोग कर पाती हूँ लेकिन आज आपका ब्लॉग देख कर बहुत अच्छा लगा ,,,,

meeta ने कहा…

मनस्वी जी आप का हार्दिक स्वागत है चिरंतन में . हौसला बढाने और साथ जुड़ने के लिए आभार .

tbsingh ने कहा…

bahut sunder.

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