रविवार, 24 फ़रवरी 2013

टिप्पणी

बोझ से झुकती है वह
पत्थरों के कठोर बोझ से
मैदान की आँखों में
और धरती की आँखों में
समूचे दृश्य में घूमती है वह
सीमेंट और गारे को
मालिक के मकान तक धोती हुई

वह बोझ से झुकती है
ज़िन्दगी के सूखते
आंसुओं के बोझ से

अपने कपड़ों से बाँध कर
ढोती है वह अपने बच्चे को
मालिक के मकान तक
गुनगुनाती हुई .

- ज़ोओ अबेल .
लुआंडा, अंगोला के कवि .


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