तुम आयीं तब दरवाज़े बंद थे
और गलियों में सन्नाटा था
अन्धकार की चौखट पर
कल रात जलाए गए दिए बुझ चुके थे
और सूर्योदय में अभी देर थी .
भोर के पहले पक्षी की आवाज़ की तरह
तुम्हारी पहली आवाज़
रात्रि के अंतिम पहर के सुनसान में .
पतझर बस अभी गया था
बसंत बस अभी आया था
दो ऋतुओं के बीच
तीसरी ऋतू की तरह तुम्हारा शुरू होना था
तुम आयीं पवन के अनंत स्वरों में
शामिल करने अपना भी स्वर
तुम आयीं धरती के अनंत कपास से
बुनने अपने भी धागे
भोर के किवाड़ में
सांकल की तरह बजी
तुम्हारी पहली आवाज़
तुम आयीं तब दरवाज़े बंद थे .
- एकांत श्रीवास्तव .
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