बुधवार, 6 मार्च 2013

एक कविता .

     
उस नारी-देह से
अपने मतलब के हिस्से
घर उठा लाया था ,
सिर और पैर
बाहर ही छोड़ आया था !
सिर की जगह एक खाली डिब्बा
और पैरों की जगह पहिये लगाने के बाद
मुझे लगा कि
अब मैं चैन से रह सकता हूँ !
लेकिन गाहे-ब-गाहे सिर की ताक-झाँक ने
मेरी चिंता बढ़ा दी ,
अक्सर पैर चहारदीवारी से बाहर
लटके मिलते !
मैंने खिड़कियाँ बंद कर दीन और -
चहारदीवारी ऊंची कर दी !
इस बीच उस नारी-देह ने
एक बच्ची को जन्म दिया ,
मैंने देखा
उसके दो सिर और चार पैर थे !

 - अरुण मिश्रा .

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