बुधवार, 6 मार्च 2013

पत्नी के लिए

वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नहीं जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा

तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप

तुम्हारा घर
प्रेम के साथ - साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारियों से बना है
कभी आटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तेहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो

तुम्हारे आँचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आँचल से उसे ढक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को

बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूं प्रेम

कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिंस्त्र पशुओं से भरे वन में

लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा .

- अरुण देव .   

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...