शुक्रवार, 8 मार्च 2013

औरत

आज का ये विशेषांक कैफ़ी आज़मी साहब की इस नज़्म के बगैर बेमानी है . शायद ही इतने ज़ाहिरी और खुले दिल से औरत को अपना हमसफ़र किसी ने माना होगा ... याद नहीं पड़ता . सरगम में उन्हीं की आवाज़ में उनकी नज़्म "औरत ".

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़ल्ब-ऐ-माहौल में लरजाँ शरर-ऐ-जंग है आज
हौसले वक़्त के और जीस्त के यकरंग हैं आज
आबगीनों में तपाँ वलवले ऐ संग हैं आज
हुस्न और इश्क हमआवाज़ औ हमाहंग हैं आज
जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िन्दगी जेहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़ ऐ हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत ख़म ऐ गेसू में नहीं
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारिख का उनवान बदलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
कहर है तेरी हर एक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ कर रस्म के बुत बारे कदामत से निकल
ज़ोफ़ ऐ इशरत से निकल , वहम ऐ नजाकत से निकल
नफ़्स के खींचे हुए हलक ऐ अज़मल से निकल
ये भी एक क़ैद ही है , क़ैद ऐ मोहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू फलातून औ अरस्तू है , तू जोहरा परवीन
तेरे कब्जे में है गर्दूँ , तेरी ठोकर में ज़मीन
हाँ उठा जल्द उठा पाए मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं , वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ायेगी कहाँ तक कि संभालना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

      - कैफ़ी आज़मी .  


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