गुरुवार, 7 मार्च 2013

स्त्री तुम .

तुम तोड़ी गयी हो
काटी-छीली गयी हो
घिसी गयी हो बेतरह
तुम्हारी आत्मा छेद दी गयी है ...

यों ही नहीं उमड़ता हवा के झोंकों से
बांसुरी में संगीत .

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जिस रोज
तुमने सूरज को
आंख मिचमिचा कर देखा ,
और पैरों के नीचे ज़मीन महसूसी ,
उसी रोज़
रास्ता ईजाद हुआ ...
तुम खुद बन गयी मुसाफिर भी , मंजिल भी .

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ठण्ड में ठिठुरते शिशु सा
मैं
तुम्हारी गंध में लिपट 
तुम्हारी बाहों में सिमट
जाना चाहता हूँ
और ,
तुम्हारे ताप से
चाहता हूँ मिटा देना
आत्मा में कुंडली मारे बैठे शिशिर को .  

-  एकलव्य .






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