समाज की
ठिठुरती ठंढ मे
फूट पड़ते हैं
लड़कियों के फूल
मटियाली
हरी डंडियों पर
कोमल
पीले सरसों के से
कन्या पुष्प,
महकने लगता है
पूरा सीवान
खेत खलिहान
गमक उठते हैं,
आसमान से बरसती ठंढ
और
गहरे कुहासों के बीच
खिलखिलाती
रहती है
लड़कियों की
पौध,
कुछ
नन्हे फूल
रौंद दिए जाते हैं
आवारा जंगली जानवरों के खुर तले
कुछ को मार जाता है
विपत्तियों का पाला,
फिर भी
कुछ फूल
अपनी ही जिद पर
अडिग हो
गदरा जाते हैं
अपनी जड़ों पर उगा लेते हैं
अपने स्वप्न फल!
पर
नियति...
उनके
शेष रहे जिद्दी सपने
देर ही सही
पीस दिए जाते हैं
गृहस्थी के कोल्हू मे...
निकले हुए
तेल से
मंदिर का दीया
जलता है!!
आखिर नियति चक्र
लड़कियों को
बार-बार
"छलता है"
- अमित आनंद .
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