रविवार, 12 मई 2013

अच्छा नहीं लगता


किराये की ज़मीं और आसमां अच्छा नहीं लगता
मुझे ये शहर ऐ दिल्ली का मकां अच्छा नहीं लगता .

न ही लेपा हुआ आँगन , न ही वो फूल गेंदे के
बुला लो गाँव वापस मुझ को माँ, अच्छा नहीं लगता .

ज़्यादा कुछ कहा तो रो पड़ेगी जानता हूँ मैं
लिखा है ख़त में इतना ही यहाँ, अच्छा नहीं लगता .

हर इक दिन ही यहाँ मेला, हर इक ही रात दीवाली
मगर तुम बिन हो कोई भी समां, अच्छा नहीं लगता .

न ही तो चाँद दिखता है, न ही आयें नज़र तारे
धुंए से लाल होता आसमां अच्छा नहीं लगता .

- विकास राणा .

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