चार जने बैठे जीमने रात का भोजन
सब बच-बच कर खा रहे
तीनों बच्चे तक समझदार
पीते बीच-बीच में पानी
पिता लेते नकली डकार
माँ थी
सबके बाद खाने वाली .
जिसके लिए दाना नहीं
देगची में बची थी हलचल
चुल्लू भर पानी की
और कटोरदान में
भाप के चन्द्रमा जैसी छाया थी
पर कम खुदा न थी
परोसने वाली
बहुत है अभी इसमें
मैंने तो देर से खाया है
कहते परोसते जाती .
- चंद्रकांत देवताले .
2 टिप्पणियां:
वाह !
aabhaar .
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