बुधवार, 18 दिसंबर 2013

इस साल

इस साल
अब
मैं कितना इंतज़ार कर रहा हूँ बसंत का
नहीं
हमेशा की तरह नहीं
मैं ठण्ड से थक गया हूँ और सूरज की कामना करता हूँ
इस साल
यह अलग है
मैं बदलाव की चरम ताकत की लालसा कर रहा हूँ
मैं गवाह बनना चाहता हूँ
पृथ्वी के फटने का
लाखों तरीकों से धरती के हिलने का
मैं चाहता हूँ पुराना सब मर जाये
क्रांतियां परिणत कर दें
कविताओं को फूलों में रक्त सिक्त धूल से
इस साल
अब
मैं चाहता हूँ शांति का ही हिंसक जन्म हो
आंसुओं को गिरने दो
मृत्यु के मनमानी कर लेने के बाद
बसंत को दहाड़ने दो गरजती हुई नदी की तरह।

- लहब आसिफ अल जुंडी
( सीरियाई कवि )
अनुवाद - किरण अग्रवाल।

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...