क्या दुःख कविता में धुंधला हो जाता है
या कभी-कभी चमकीला भी
जीवन में पछाड़े खाती उस औरत का
तार-तार होता विलाप
पराये शब्दों में जाकर क्या से क्या हो जायेगा
कहना कितना मुश्किल है
तहस-नहस कर दी गयी उसकी झोपड़ी
चिथड़ों-बरतन भांडों समेत
बेदखल कर दी गयी जो विधवा
डरते-कांपते अधनंगे तीनों बच्चे खड़े
तकते उसे जैसे वह कोई खौफनाक दृश्य
तीसरे जो भी बांचेंगे
विस्थापन की यह हिंसा
दिखाई देगा क्या उन्हें
ऐसे ही किसी हड़कम्प में ध्वस्त होता हुआ अपना घर
बीसवीं के पटाक्षेप के बाद भी धरती पर
कितनी जगह है खाली बसने-बसाने के लिए
फिर भी पुश्तैनी कब्ज़ों को छोड़
घास-पात को निशाना बनाता है
हत्यारों का अंधा बुल्डोज़र
बसाने के बदले उजाड़ने की इस क्रूरता को
रचते हुए कितना कुछ टूट रहा है भीतर ही भीतर
और आस-पास की दुनिया में कोई फर्क नहीं पड़ रहा
कुछ नहीं हुआ जैसे चुप नदी नर्मदा
सुबह और पहाड़ चुप
वैसे ही मुंह बंद लोगों कि परछाइयाँ।
विपदा के सिवा कोई नहीं है
फिलवक़्त उस औरत के साथ
जब कि पूरा देश है चारों तरफ
हज़ारों शब्द हैं आंसू पोंछने
और कमज़ोरों के साथ खड़े होने के बारे में
पर एक भी शब्द उसके साथ
ऐसा कुछ नहीं कर रहा।
- चंद्रकांत देवताले .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें