बुधवार, 5 मार्च 2014

संवेदना - The Thread that Binds


मानवीय सुख-दुःख निरंतर अभिव्यक्ति का मार्ग तलाशते हैं। सुख का वह एक क्षण जब मनुष्य को लगता है धूप का सोना बिखरा है तो मानो उसी के लिए, बारिश यदि होती है तो बस उसे ही भिगोने के लिए, तारों से भरा-पूरा आसमान उस से ही बातें करना चाहता है, दुनिया का हर फूल उसे देख कर मुस्कुराता है  … जैसे सब कुछ स्पंदित है उसके ह्रदय की गति से, चारों ओर सौंदर्य और स्फूर्ति भरी है उसकी ही विस्मित दृष्टि की तरह। तब वह अपने से बाहर आ कर जुड़ जाता है प्रकृति से, अपने इर्द-गिर्द के संसार से, उसे रचने, उस में बसने वालों से। कवि इसे अपना 'हरापन' कहता है। और यही हरापन उसकी अभिव्यक्ति को जीवित रखता है। ये हरापन वो संवेदना का तार है जो उसकी जड़ों से टहनियों तक रक्त संचार करता है और झुलसती हुई गरमी में भी उसे सघन, छायादार रखता है। कवि कह उठता है
" मेरा गीत न गा पाया यदि दर्द आदमी का
अगर नहीं कर पाया थमे पसीने का टीका
भाषा बोल न पायी हारी-थकी झुर्रियों की …
 … कुछ नहीं "
यही संवेदना मनुष्य को जोड़ती है अपने जैसों से, उनके सुख-दुःख से, हार-जीत से, उनके और अपने बीच के उस तंतु से 'जो आदमी को पेड़ों से अलग करता है।' किन्तु वह इस सत्य से अनभिज्ञ भी नहीं कि
"कहने पर भी कहीं
कही जाती है पीड़ा
पीड़ा की भूमि पर उगाता हूँ
फूल, वृक्ष, लताएं
सींचकर संचित अनुभवों से अपने। "
- केशव .
 कटु ही सही, जीवन की तेज़ बहती हुई धारा में गहरे उतर कर निकाला हुआ कवि का सत्य जिस वेदना को अभिव्यक्ति दे रहा है, वह उस संवेदना की ही तो कड़ी है जिसे वह जीवित रखना चाहता है, जब वह कह उठता है -
" वेदना में दूसरे की
वेदना जो है दिखाता
वेदना से मुक्ति का
निज हर्ष ही वह है छिपाता  … "
इसी लिए वह शब्दों से जूझता है कि सत्य को परिभाषित कर सके।  इसी लिए बार-बार रचता है कि उसके भीतर के मनुष्य का संवाद बाहर के मनुष्य से चलता रहे जिस से वह उस अदेखी डोरी से बंधा है जिसे संवेदना कहते हैं।
" खुदा को पा गया वाइज़ मगर है
ज़रुरत आदमी को आदमी की "
फिराक़ गोरखपुरी के इस शेर के साथ , चिरंतन का यह अंक आप सब के लिए -

- मीता .
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क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

मैं दुखी जब-जब हुआ
संवेदना तुमने दिखाई,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
रीति दोनो ने निभाई,
किन्तु इस आभार का अब
हो उठा है बोझ भारी;
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

एक भी उच्छ्वास मेरा
हो सका किस दिन तुम्हारा?
उस नयन से बह सकी कब
इस नयन की अश्रु-धारा?
सत्य को मूंदे रहेगी
शब्द की कब तक पिटारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?क्या करूँ?

कौन है जो दूसरों को
दु:ख अपना दे सकेगा?
कौन है जो दूसरे से
दु:ख उसका ले सकेगा?
क्यों हमारे बीच धोखे
का रहे व्यापार जारी?
क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ?

क्यों न हम लें मान, हम हैं
चल रहे ऐसी डगर पर,
हर पथिक जिस पर अकेला,
दुख नहीं बंटते परस्पर,
दूसरों की वेदना में
वेदना जो है दिखाता,
वेदना से मुक्ति का निज
हर्ष केवल वह छिपाता;
तुम दुखी हो तो सुखी मैं
विश्व का अभिशाप भारी!

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
क्या करूँ ?

- हरिवंश राय बच्चन
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संयोगवश 

मैंने एक दिन सड़क पर
एक आदमी को देखा
और मुझे लगा मैं इसे जानता हूँ।

'गलत'- मेरे मन ने कहा
तुम इसे नहीं जानते।

जानता हूँ - मैंने कहा
यह वही आदमी है
जो मुझे ट्रेन में मिला था

एकदम गलत - मेरे मन ने फिर कहा
यह वह नहीं है !

है !
नहीं है -
मैं देर तक सोचता रहा
कि तभी मुझे दीखा
उसके धूप भरे चेहरे पर वह चिकना सा द्रव
जो आदमी को पेड़ों से अलग करता है।

वही - वही
यह वही आदमी है -
मैंने खुद से कहा
और बहुत दिनों बाद
मुझे एक ऐसी खुशी हुई
जिसके बारे में किताबों में
मैंने कहीं कुछ नहीं पढ़ा है !

- केदारनाथ सिंह  .
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मेरा चेहरा 

मेरा चेहरा
अगर नहीं बन पाया मेरा गीत
कुछ नहीं  …

चेहरा जिस पर धूल पड़ी है झीनी-झीनी सी
जिसके नीचे आग दबी है नयी रौशनी की
खाकर मार समय की मेरी बोझल पेशानी
अगर नहीं गा पायी मेरी टूटन का संगीत
कुछ नहीं

मेरा गीत न गा पाया यदि दर्द आदमी का
अगर नहीं कर पाया थमे पसीने का टीका
भाषा बोल न पायी हारी-थकी झुर्रियों की
लाख मिले मुझको बाज़ारू जीत
कुछ नहीं।

-------------- और ------------
हरापन नहीं टूटेगा 

टूट जायेंगे
हरापन नहीं टूटेगा

कुछ गए दिन
शोर को कमज़ोर करने में
कुछ बिताए
चाँदनी को भोर करने में
रोशनी पुरज़ोर करने में

चाट जाये धूल की दीमक भले ही तन
हरापन नहीं टूटेगा

लिख रही हैं वे शिकन
जो भाल के भीतर पड़ी हैं
वेदनाएँ जो हमारे
वक्ष के ऊपर गढ़ी हैं

बन्धु! जब-तक
दर्द का यह स्रोत-सावन नहीं टूटेगा

हरापन नहीं टूटेगा

- रमेश रंजक  .
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उसने मेरा हाथ देखा 

उसने मेरा हाथ देखा और सर हिला दिया
"इतनी भाव प्रवणता
दुनिया में कैसे रहोगे !
इस पर अधिकार पाओ , वरना
लगातार दुःख दोगे
निरंतर दुःख सहोगे। "

यह उधड़े मांस सा दमकता अहसास
मैं जानता हूँ , मेरी कमज़ोरी है
हलकी सी चोट इसे सिहरा देती है
एक टीस है जो अंतरतम तक दौड़ती चली जाती है
दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा देती है
पर यही एहसास तो मुझे ज़िंदा रखे है
यही तो मेरी शहज़ोरी है !
वरना मांस जब मर जाता है
जब खाल मोटी हो कर ढाल बन जाती है
हल्का सा कचोका तो दूर , आदमी गहरे वार
बेशर्मी से हंस कर सह जाता है ;
जब उसका हर आदर्श दुनिया के साथ
चलने की शर्त में ढल जाता है
जब सुख सुविधा और सम्पदा उसके पाँव चूमते हैं -
वह मज़े से खाता-पीता और सोता है
तब यही होता है ; सिर्फ
कि वह मर जाता है।
वह जानता नहीं, लेकिन
अपने कन्धों पर अपना शव
आप ढोता है।

- उपेन्द्रनाथ अश्क  .
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कोई नहीं उसके साथ 

क्या दुःख कविता में धुंधला हो जाता है
या कभी-कभी चमकीला भी
जीवन में पछाड़े खाती उस औरत का
तार-तार होता विलाप
पराये शब्दों में जाकर क्या से क्या हो जायेगा
कहना कितना मुश्किल है

तहस-नहस कर दी गयी उसकी झोपड़ी
चिथड़ों-बरतन भांडों समेत
बेदखल कर दी गयी जो विधवा
डरते-कांपते अधनंगे तीनों बच्चे खड़े
तकते उसे जैसे वह कोई खौफनाक दृश्य

तीसरे जो भी बांचेंगे
विस्थापन की यह हिंसा
दिखाई देगा क्या उन्हें
ऐसे ही किसी हड़कम्प में ध्वस्त होता हुआ अपना घर
बीसवीं के पटाक्षेप के बाद भी धरती पर
कितनी जगह है खाली बसने-बसाने के लिए
फिर भी पुश्तैनी कब्ज़ों को छोड़
घास-पात को निशाना बनाता है
हत्यारों का अंधा बुल्डोज़र
बसाने के बदले उजाड़ने की इस क्रूरता को
रचते हुए कितना कुछ टूट रहा है भीतर ही भीतर
और आस-पास की दुनिया में कोई फर्क नहीं पड़ रहा
कुछ नहीं हुआ जैसे चुप नदी नर्मदा
सुबह और पहाड़ चुप
वैसे ही मुंह बंद लोगों कि परछाइयाँ।

विपदा के सिवा कोई नहीं है
फिलवक़्त उस औरत के साथ
जब कि पूरा देश है चारों तरफ
हज़ारों शब्द हैं आंसू पोंछने
और कमज़ोरों के साथ खड़े होने के बारे में
पर एक भी शब्द उसके साथ
ऐसा कुछ नहीं कर रहा।

- चंद्रकांत देवताले  .
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नदी पार करते हुए 

मैं नहीं देख पाता
अपनी ओर बढ़ती हुई लहरों को
डरकर दूर भागती मछलियों को
किनारे से कटती हुई मिट्टी को

कैसे जान पाता नदी का दुःख
अगर गुज़र जाता मैं भी पुल से
औरों की तरह !

- नोमान शौक़  .
'रात और विषकन्या' से  .
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The Little Boy and The Old Man .


Said the little boy, "Sometimes I drop my spoon."
Said the old man, "I do that too."

The little boy whispered, "I wet my pants."
"I do that too," laughed the little old man.

Said the little boy, "I often cry."
The old man nodded, "So do I."

"But worst of all," said the boy, "it seems
Grown-ups don't pay attention to me."

And he felt the warmth of a wrinkled old hand.
"I know what you mean," said the little old man.

- Shel Silverstein .

3 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर रचनाऐं सँकलित की हैं !

कौशल लाल ने कहा…

बहुत सुंदर....

Imran ने कहा…

सारी संवेदना तो अच्छी हैं,
वक़्त लेकिन बदल गया कितना.
हम गए दिन यहाँ का हिस्सा थे,
अब तो गैरों में नाम है अपना.

अब भी उम्मीद पर नहीं टूटी,
फिर सजेगा ये आशियाँ अपना.
फिर से मंज़र ये खुशनुमा होंगे.
मेरी आँखों मैं बस यही सपना.....

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