मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

उसने मेरा हाथ देखा

उसने मेरा हाथ देखा और सर हिला दिया
"इतनी भाव प्रवणता
दुनिया में कैसे रहोगे !
इस पर अधिकार पाओ , वरना
लगातार दुःख दोगे
निरंतर दुःख सहोगे। "

यह उधड़े मांस सा दमकता अहसास
मैं जानता हूँ , मेरी कमज़ोरी है
हलकी सी चोट इसे सिहरा देती है
एक टीस है जो अंतरतम तक दौड़ती चली जाती है
दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा देती है
पर यही एहसास तो मुझे ज़िंदा रखे है
यही तो मेरी शहज़ोरी है !
वरना मांस जब मर जाता है
जब खाल मोटी हो कर ढाल बन जाती है
हल्का सा कचोका तो दूर , आदमी गहरे वार
बेशर्मी से हंस कर सह जाता है ;
जब उसका हर आदर्श दुनिया के साथ
चलने की शर्त में ढल जाता है
जब सुख सुविधा और सम्पदा उसके पाँव चूमते हैं -
वह मज़े से खाता-पीता और सोता है
तब यही होता है ; सिर्फ
कि वह मर जाता है।
वह जानता नहीं, लेकिन
अपने कन्धों पर अपना शव
आप ढोता है।

- उपेन्द्रनाथ अश्क  .


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