मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

सब्ज़ लम्हे

सफ़ेदा चील जब थक कर कभी नीचे उतरती है 
पहाड़ों को सुनाती है 
पुरानी दास्तानें पिछले पेड़ों की  … 

वहां देवदार का इक ऊंचे कद का पेड़ था पहले 
वो बादल बाँध लेता था कभी पगड़ी की सूरत अपने पत्तों पर 
कभी दोशाले की सूरत उसी को ओढ़ लेता था  … 
हवा की थाम कर बाहें 
कभी जब झूमता था, उस से कहता था,
मेरे पाँव अगर जकड़े नहीं होते,
        मैं तेरे साथ ही चलता। 

उधर शीशम था, कीकर से कुछ आगे 
बहुत लड़ते थे वह दोनों 
मगर सच है कि कीकर उसके ऊंचे कद से जलता था 
सुरीली सीटियां बजती थीं जब शीशम के पत्तों में 
परिंदे बैठ कर शाखों पे, उसकी नकलें करते थे  … 

वहां इक आम भी था 
जिस पे एक कोयल कई बरसों तलाक आती रही  … 
जब बौर आता था  … 
उधर दो-तीन थे जो गुलमुहर, अब एक बाकी है,
वह अपने जिस्म पर खोदे हुए नामों को ही सहलाता रहता है। 

उधर एक नीम था 
जो चांदनी से इश्क करता था  … 
नशे में नीली पड़ जाती थीं सारी पत्तियां उसकी। 

ज़रा और उस तरफ परली पहाड़ी पर,
बहुत से झाड़ थे जो लम्बी-लम्बी सांसें लेते थे,
मगर अब एक भी दिखता नहीं है उस पहाड़ी पर !
कभी देखा नहीं, सुनते हैं, उस वादी के दामन में,
बड़े बरगद के घेरे से बड़ी एक चम्पा रहती थी,
जहाँ से काट ले कोई, वहीँ से दूध बहता था,
कई टुकड़ों में बेचारी गयी थी अपने जंगल से  … 

सफ़ेदा चील इक सूखे हुए से पेड़ पर बैठी 
पहाड़ों को सुनाती है पुरानी दास्तानें ऊंचे पेड़ों की,
जिन्हें इस पस्त क़द इन्सां ने काटा है, गिराया है,
कई टुकड़े किये हैं और जलाया है  !!

- गुलज़ार . 


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