मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

कैसा पानी कैसी हवा

किस तरह होती जा रही है दुनिया
कैसे छोड़ कर जाऊंगा मैं
बच्चों तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को
इस कांटेदार भूल-भुलैया में

किस तरह और क्या सोचते हुए
मरूंगा मैं कितनी मुश्किल से
सांस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं
खिड़की से क्या पता
कब दिखना बंद हो हरी पत्तियों के गुच्छे

हरी पत्तियों के गुच्छे नहीं होंगे
तो मैं कैसे मरूंगा
मैं घर में पैदा हुआ था
घर पेड़ का सगा था
गाँव में बड़ा हुआ
गाँव खेत-मैदान का सगा था
पर अब किस तरह रंग बदल रही है दुनिया
मैं कारखानों में फंसी आवाज़ों के बिस्तर पर
नहीं मरूंगा

कारखाने ज़रूरी हैं
कोई अफ़सोस नहीं
आदमी आकाश में सड़कें बनाये
कोई दिक्कत नहीं

पर वह शैतान
उसके नाखून   … भयानक जबड़े  …
वह शहरों गावों पर मंडरा रहा है
और हमारी परोपकारी संस्थाएं
हर घर से उस के लिए
जीवित मांस की व्यवस्था कर रही हैं।

घरों की पसलियों पर
कारखानों की कुहनियों का बोझ
गलत बात है
स्याह रास्ता अंतहीन अंत जैसा
और जुगनुओं सी टिमटिमाती
भली आत्माओं के दो-चार शब्द

हरी पत्तियों का गुच्छा होगा
तब भी दिक्कत आएगी
सोच-सोच कर
तुम्हारे बच्चों के बच्चे किस तरह
रास्ता बनाएंगे
कैसा पानी कैसी हवा
ईंधन का पता नहीं क्या करेंगे ?
सच मरते वक़्त अपने को माफ़ नहीं
कर पाऊंगा मैं।

- चंद्रकांत देवताले  . 

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