सोमवार, 14 नवंबर 2011

खिडकियों के उस पार .

कांच की खिडकियों के पार 
दुकानों , मकानों , घास और बगीचों पर 
एक ही रफ़्तार में मुसलसल 
गिर रही है बारिश 
दो दिनों से बेहिसाब ...


हवा न जाने किस तर्ज पर काट रही है 
चक्कर गोल - गोल 
भेदती हुई दुछत्ती के परदे 
खडखड़ाती गैरेज की छत ...

कुछ कुछ देर में 
खिड़की से झांकते 
हम 
खबर ले लेते हैं 
इन उन्मादी झोंकों में 
जूझते या शायद झूमते 
अमलतास , सहजन और चौड़े पत्ते वाले 
ऊंचे झारखंडी पेड़ों की ...


यकीनन जिन की पत्तियों पे होंगे 
बौछारों की चोटों के अदृश्य निशान


सवेरे काम वाली बाई 
परेशान - हैरान ले गई दोपहर की छुट्टी .
उस के घर की ज़मीन उगल रही है पानी 
और खपरैल रिस रहा है चूल्हे पर ...


बारिश गिर रही है दो दिनों से 
दुकानों , मकानों , घास और बगीचों पर 
एक ही रफ़्तार में मुसलसल 
कांच की खिडकियों के 
उस पार .  


               पारुल पुखराज .

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