शनिवार, 12 नवंबर 2011

उस पार

उस पार प्रिये मधु है न तुम हो,
उस पार अकेले जाना है,
श्वासों की गति से मुक्त हो,
नये आयाम को पाना है.


उस पार न मृत्यु का भय है,
उस पार न जन्मों का बंधन,
उस पार पहुँचता वही मुमुक्षु
अर्पित कर दे जो तन मन धन.

पलटें अतीत के पन्नो को,
उस पार दधिची सिर्फ एक,
कवच और कुंडल दे जो,
दानी ऐसा भी कर्ण एक.


जो प्राप्त हुआ उस सदगति को,
वो ही महात्म बन पाया है.
बिना समर्पण भाव लिए,
उस पार की इच्छा रखने वाला,
केवल त्रिशंकु कहलाया है.


उस पार न कल कल सरिता है,
उस पार न कलरव करते खग,
उस पार न सूरज है न शशि है,
उस पार न गति का कोई भय.


इस पार का संचालन करता,
इस पार को गति जो देता है,
इस पार की सीमा रेखा का,
निर्धारण जो करता है,
वो शक्तिपुंज वो बिंदु मात्र,
इस पार नहीं उस पार कही....






1 टिप्पणी:

meeta ने कहा…

बहुत खूबसूरत और गहरी रचना प्रीति . ऐसे ही लिखती रहो . शुभ कामनाएं और स्नेह .

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