गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

उड़ते रहना

रात एक करवट और ले चुकी थी
खट खट - खट खट जाने किसने
दस्तक दी थी पलकों पर...


उठ कर देखा तो
आँखों के आगे, पलकों के दरवाज़े पर
एक ख्वाब खड़ा था ,
और चोट लगी थी ख्वाब को एक...



पहली परवाज़ में लड़खड़ा कर गिरा था वो 
और लंगड़ाते लंगड़ाते पहुंचा था फिर मेरे पास
के मैं इस पर हिम्मत की हल्दी मल दूं 
हौसले की पट्टियों से सारे इसके घाव भर दूं 
जान फूँक दू फिर इसके पंखों में
आँखों में फिर उड़ने के सपने भर दूं ...


पंख भले ही टूट गए थे
उम्मीद नहीं टूटी थी पर
पलकों के दरवाज़े पर एक ख्वाब खड़ा था
और चोट लगी थी ख्वाब को एक....


ज़िन्दगी में कई मर्तबा
हम उड़ने से पहले ही गिर जाते हैं ,
ख्वाब हमारे यूँही
पलकों की बरसातों में बह जाते हैं...


चोट लगे तो फिर उड़ना तुम
ख्वाबों के भी घाव सुना है भर जाते हैं
नए परिंदे भी तो आसमान में उड़ जाते हैं


ख्वाबो को बहने मत देना
उड़ते रहना... उड़ते रहना...


                         देव .



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