कब तक
अपने पँख सहलाओगे ...
चाटेगी जब नाकामियों की दीमक
खुद से बच कर
तुम किधर जाओगे ?
क्यूँ डरते हो
कि फिर से तुम जल जाओगे ...
बैठे रहे जो यूँ ही तुम
जाहिर है ,कि पत्थर में ढल जाओगे .
अपनी पहचान तुम
सोचोगे जब तुम
कभी इसके बारे में -
अफ़सोस से ही पिघल जाओगे .
मेरी मानो
फिर हौसलों के पँख लगाओ
मैं हाथ बढ़ता हूँ आगे ...
तुम कदम मिलाओ .
चलो
फिर उड़ चलें
आकाश में ...
सूरज पीने की
प्यास में .
स्कन्द .
स्कन्द .
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