शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

आज फिर से .

जाल किस तरह मैं तोडूं !
जीवन किस डगर पर मोडूं !
हर मोड़ पर वह है खड़ा 
नज़रें भला किस और मोडूं ?

भेद जाता है अन्दर तक 
एक नज़र भी जब वो देखे 
कैसे छुपाऊँ हाल अपना 
मुझको वो भीतर तक घेरे .

बंद कर लेता हूँ किवाड़ 
कि कहीं दिख न जाऊं उस को ,
झिर्री भी कहीं मिल जाये तो 
उन्मुक्त हवा सा आ घेरता है मुझ को 

रौंद जाता है , छील देता है 
कहता है अब तो बाहर निकल .
झोंका हवा का हूँ मैं देख 
अब तो बह , मेरे साथ चल .

कब तक खुद से लडेगा तू !
सच से कब तक बचेगा तू !
काली रातें अब तो छोड़ दे 
रौशनी से अब तो रिश्ता जोड़ ले .

देख पवन भी गीत है गाती ,
सन्देश कानों में है छोड़ जाती .
अंधेरों में सफ़र नहीं होता .
धोखा कोई ज़हर नहीं होता .

अंधेरों के बाद उजाला है आता 
बाँहों को फैला उस ओर .
जाल है ये इसको तोड़ ...
गुज़रे कल को पीछे छोड़ .

मुहब्बत के समंदर में चल 
खुद को इस में बहने दे .
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी में 
आज फिर से मिलने दे .  

                      - विनय मेहता .   

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