जाल किस तरह मैं तोडूं !
जीवन किस डगर पर मोडूं !
हर मोड़ पर वह है खड़ा
नज़रें भला किस और मोडूं ?
भेद जाता है अन्दर तक
एक नज़र भी जब वो देखे
कैसे छुपाऊँ हाल अपना
मुझको वो भीतर तक घेरे .
बंद कर लेता हूँ किवाड़
कि कहीं दिख न जाऊं उस को ,
झिर्री भी कहीं मिल जाये तो
रौंद जाता है , छील देता है
कहता है अब तो बाहर निकल .
झोंका हवा का हूँ मैं देख
अब तो बह , मेरे साथ चल .
कब तक खुद से लडेगा तू !
सच से कब तक बचेगा तू !
काली रातें अब तो छोड़ दे
रौशनी से अब तो रिश्ता जोड़ ले .
देख पवन भी गीत है गाती ,
सन्देश कानों में है छोड़ जाती .
अंधेरों में सफ़र नहीं होता .
धोखा कोई ज़हर नहीं होता .
अंधेरों के बाद उजाला है आता
बाँहों को फैला उस ओर .
जाल है ये इसको तोड़ ...
गुज़रे कल को पीछे छोड़ .
मुहब्बत के समंदर में चल
खुद को इस में बहने दे .
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी में
आज फिर से मिलने दे .
- विनय मेहता .
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