शनिवार, 24 दिसंबर 2011

वाघा पर


वाघा पर
जो हिन्दुस्तान और पकिस्तान की सरहद पर
एक बाड़ लगी है
वो कच्ची है...

गर्म हवा के पागल झोंके
कई बार यह ज़मीनी सरहद टाप कर
इस पार चले आते हैं
इन्फिल्त्रैटर यह भी तो कहलाते हैं...

ये बाड़ें कहाँ रोक पाती हैं
लाहौर में बैठी बूढी अम्मी की पुचकारों को
मौसी की तरह यह सबा 
सहला जाती है बालों को
ईदों पर सरहद के इस पार भी दिखता है
और उधर की छत्त पर भी टंगता है चाँद

पंछी कितने आकर
सिंध की रोटियां गिरा जाते हैं इस तरफ
तोते उड़ कर रोज़ शाम को
पाकिस्तान की सरहद छू आते हैं
हिंदुस्तान के मंदिर से उड़ कर
उस पार के मस्जिद की आज़ानो को दोहराते हैं

वाघा पर
जो हिन्दुस्तान और पकिस्तान की सरहद पर
एक बाड़ लगी है
वो कच्ची है...

सुबह सुबह सेवईं की खुशबू
कहाँ रुकी हैं तारों से
ज़मी बटी है
आसमान तो बचा हुआ है बट्वारों से

सरहद पर जो घास उगी वो किसकी है ...
रावी दोनों पार बहे वो किसकी है...
आसमान के तारों पर कब्ज़ा किसका है...
इस मिटटी पर उगा हुआ सब्ज़ा किसका है ?

वाघा की सरहद पर आज़ाद हवाएं चलती हैं
एक ही माँ के दो टुकड़ों की सांसें साझा चलती हैं

आज़ाद हवाएं कहाँ बटी हैं
सरहद की दीवारों से

वाघा पर
जो हिन्दुस्तान और पकिस्तान की सरहद पर
एक बाड़ लगी है
वो कच्ची है...

                                - देव .

चिरंतन - उस पार / Acrosss the Bridge .

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