रविवार, 25 दिसंबर 2011

उड़ान.......


एक बार
बस एक बार
कल्पनाओं के पंखो पर सवार हो
उन्मुक्त उड़ना चाहती हूँ ...
मै रोज सूरज के पीछे भागती हूँ
एक दिन उससे आगे दौड़ना चाहती हूँ .



उस हसियें से चाँद पर झूला डालना चाहती हूँ .
पहाड़ों के शीर्ष पर बैठ कर
ऊपर पहुचने वालों के
जीत से उल्लासित चेहरे देखना चाहती हूँ .


कभी नदी के साथ कलकल बहना ,
कभी बादलों में बैठ कर
घाटियों में उतरना चाहती हूँ .
जब स्थितिया हाथ से फिसलने लगे...
तब छुप जाना चाहती हूँ .


'वर्षा वनों ' में जाकर
ना मेरी बोली कोई समझे
ना मै किसी की बात
बस एक बार उड़ना चाहती हूँ .


उन्मुक्त उड़ान ऐसी हो
कि फिर वापस ना आना हो
बस गुम हो जाऊं बादलों के लिबास में
मैं सबको देख सकूँ
मुझे कोई ना देख सके .


राहतें नेमते बरसाऊ
मानव होने का अर्थ समझाऊँ .
क्यूँ चाहती हूँ पता नहीं !
उड़ान का कोई तर्क नहीं
ना ही अनुभव का वृतांत ...
ये अदम्य इच्छा है बरसों की
उड़ना चाहती हूँ
बस एक बार ...
उन्मुक्त .....


    राजलक्ष्मी शर्मा. 

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