रविवार, 25 दिसंबर 2011

उन्मुक्त हवाओं के झोंकों...



मन की कोमल घाटी में तुम शूलों से चुभ जाते हो,
उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।

मेरे उजड़े उपवन की भी कली कली मुसकाई थी।
बीत गये वो दिन मेरे अधरों पर आशा आई थी,
पत्र टूटता शाखों से मैं चाहूँ धरती में मिलना,
किंतु वायुरथ से तुम मेरे जीवाश्म उड़ाते हो।


उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।


तन मन आशा यहाँ तलक मेरा हर रोम जला डाला,
एक अगन ने मेरा जीवन काली राख बना डाला,
पीड़ा का अम्बार लगाकर दिवा रात्रि बीत गये,
ढेर तो यूँ ही रहने दो क्यों यत्र तत्र बिखराते हो।


उन्मुक्त हवाओं के झोंकों क्यों तन सुलगाने आते हो।


                     - इमरान .

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