गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

संदूक पुराना .


धुंधलाई सी यादों की  
तसवीरें हैं कुछ मुड़ी-तुड़ी .
धूप ज़रा सी , छांह ज़रा सी 
चंद खुशबुएँ उडी उडी ,


बचपन के वो खेल खिलौने ,
भूले बिसरे गाने हैं ...
मीठी सी कुछ मुस्कानें हैं ,
कुछ बेनाम खजाने हैं .



प्यारे से चेहरे भी हैं 
जो कहाँ न जाने छूट गए .
एक दो सपने -
जिनके पर उड़ने से पहले टूट गए .


जाने क्या है इनमें ऐसा 
अब भी इन्हें सम्हाल रखा है ...
मैंने इन्हें सहेज के 
इक छोटे बक्से में डाल रखा है .


मन के गलियारे से गुजरूँ 
तो आता है वो तहखाना ...
जहाँ छुपा कर रखा हुआ है 
मैंने एक संदूक पुराना .


अक्सर उसे खोलती हूँ मैं 
जब भी तनहा होती हूँ ,
छू कर उन बीते लम्हों को 
कुछ हंसती , कुछ रोती हूँ .


दो पल उनके साथ बिताना 
इतना अच्छा लगता है !!
झूठे जग में यही खज़ाना 
मन को सच्चा लगता है .


एक दिन तुम भी ऐसा करना 
मन के गलियारों में जाना ...
ढूंढो...शायद वहां मिलेगा 
तुमको भी संदूक पुराना .


                     - मीता .

चिरंतन - मन के गलियारे / Corridors of heart .

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