रविवार, 18 दिसंबर 2011

कैसी कुर्बतें हैं यह कैसे फासले

अजीब तो है
यह तुम्हारे होने न होने का एहसास
दूर भी लगती हो कितनी
नज़र भी आती हो कितनी पास...


तुम कभी ख्वाब जैसे लगती हो
के तुमको देख तो सकता हूँ रूबरू
मगर बस छू नहीं सकता
मैं तुमको जी नहीं सकता
तुम्हारा दायरा अपनी हदों में सी नहीं सकता...
अजीब तो है
यह तुम्हारे होने न होने का एहसास



कभी तुम मेज़ पर रखे गुलाबों की तरह हो
तुम्हे मैं रख नहीं सकता
तुम्हारी खुशबुओं पर कोई रिश्ता ढक नहीं सकता
हाँ तुम्हे मैं डायरी में अपनी रख तो सकता हूँ
मगर सूखे हुए फूलों से कहाँ खुशबू आती है
ज़बरदस्ती के रिश्तों में न बरकत कोई आती है...
अजीब तो है
यह तुम्हारे होने न होने का एहसास


ज़हन में जब कभी
तुम्हारी यादों की नदी उफ़ान खाती है
पलकों की मुंडेरों से छलक कर
कुछ लहरें भाग जाती हैं
यह कैसी कुर्बतें हैं
यह कैसे फासले
तुम आँख में रहते भी हो
तुम आँख से बहते भी हो


तुम खुदा हो क्या कोई
की तुमको चाह सकता हूँ
तुम्हे मैं पा नहीं सकता
तुम्हारा अक्स अपनी आँख में गुदवा नहीं सकता
यह कैसी कुर्बतें हैं
यह कैसे फासले
तुम्हे मन मंदिर में रख तो सकता हूँ
तुम्हे मैं छु नहीं सकता
मैं तुमको पा नहीं सकता...


अजीब तो है
यह तुम्हारे होने न होने का एहसास...


                             - देव .






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