शनिवार, 10 दिसंबर 2011

उजला सूरज जब उसके तन को लिपट जाये .





शाम का धुवाँ उसकी आँखों में 
मोतिया बन कर उतर आया है ;
न उसका उजाला है, न उसका अँधेरा है .
किस उम्मीद में काटे वो कुफ्र की लम्बी रात 
जब उधार में उस को मिला सवेरा है .

माथे पर सजीं लकीरें ,वो कुरेदती है उँगलियों से -
कोशिश करती है जान ले कि कितना घनघोर अँधेरा है .
थक जाती हैं उसकी उँगलियाँ  इस बेरहम तलाश में 
न जाने उस कि नियति पर ये किसने पानी फेरा है .

कुछ साठ वसंत ,कुछ सत्तर पतझर, बातों-बातों में बीत गए .
कितने सूरज उस से हारे, कितने चंदा जीत गए 
कितनी मुस्काने उसने बांटी, कितने आसूँ पी गयी .
आँचल में समेटे गहरा सागर ,कैसे इतना जी गयी 
संगी बिछुड़े, साथी बिछुड़े, गीत गए, मनमीत गए .
कुछ साठ वसंत , कुछ सत्तर पतझर, बातों-बातों में बीत गए .

अब तो हैं परछाई भी अपने घर को चली गयी ,
उधडी सी इस शाम पर टाँगें कब तक वो उम्मीद नयी .
यादें भी अब तो सुलग सुलग कर राख बन गयी हैं ,
धुवाँ - धुवाँ  जीने की कसक भी खाख बन गयी है ,
बस अब तो ये रात ढले और नया सवेरा लाये ,
उजला सूरज जब उसके तन को लिपट जाये .


                              - स्कन्द .

2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यथार्थ को कहती अच्छी और संवेदनशील रचना

Na ने कहा…

Skand its so touching.At once i could glimpse so many faces streaked with wrinkles and eyes alive with love, many of the beautiful women of 'Pahad' who've spend their lives in extreme hard work, and wait for the unknown in lonliness..

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