रविवार, 11 दिसंबर 2011

शाम का धुआं - Evening Mist .



सूरज की पहली किरण के साथ ही शुरू होती है...इंसानी जद्दोजहद...अपने आप से , दुनिया से , कुदरत से ... कुछ कर जाने की , कुछ बना लेने की , कुछ मिटा देने की ..... और जद्दोजहद भरे इस दिन की गर्मी से झुलसी सहमी सी शाम जब दबे पाँव आती है तो साथ लाती है... शाम का धुआं . जिस धुंए के छंटने पर सामने आती हैं चंद तसवीरें ....ऐसी ही कुछ तसवीरें लफ़्ज़ों की शक्ल में नुमायाँ हैं चिरंतन के इस अंक में .. .. .. 


                                      - पुष्पेन्द्र वीर साहिल .


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           ये धुआं धुआं सी शाम .



तुम मेरे पास होते 
तो सोचती हूँ मैं ...
इतनी ना होती तनहा 
ये धुआं धुआं सी शाम .


ये पीले पीले पत्ते ,
ये ज़र्द चेहरा सूरज ,
ये तल्ख सी हवाएं ,
इनमें भी रंग होता ...
ये भी हसीन लगते .


पर ...
जब कि तुम नहीं हो ,
और ऐसा कुछ नहीं है 
जो रौशनी सी भर दे
बेनूर इस फिज़ां में ;
तो ...
मैं भी सोचती हूँ 
कि इक ख्वाब ही बुन डालूँ .


जहां शाम के धुएं में ,
तुम हाथ मेरा थामे 
मुझे ले चलो कहीं भी 
इक अजनबी सफ़र पर .


                       मीता.


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उजला सूरज जब उसके तन से लिपट जाये .





शाम का धुवाँ उसकी आँखों में 
मोतिया बन कर उतर आया है ;
न उसका उजाला है, न उसका अँधेरा है .
किस उम्मीद में काटे वो कुफ्र की लम्बी रात 
जब उधार में उस को मिला सवेरा है .

माथे पर सजीं लकीरें ,वो कुरेदती है उँगलियों से -
कोशिश करती है जान ले कि कितना घनघोर अँधेरा है .
थक जाती हैं उसकी उँगलियाँ  इस बेरहम तलाश में 
न जाने उस कि नियति पर ये किसने पानी फेरा है .

कुछ साठ वसंत ,कुछ सत्तर पतझर, बातों-बातों में बीत गए .
कितने सूरज उस से हारे, कितने चंदा जीत गए 
कितनी मुस्काने उसने बांटी, कितने आसूँ पी गयी .
आँचल में समेटे गहरा सागर ,कैसे इतना जी गयी 
संगी बिछुड़े, साथी बिछुड़े, गीत गए, मनमीत गए .
कुछ साठ वसंत , कुछ सत्तर पतझर, बातों-बातों में बीत गए .

अब तो हैं परछाई भी अपने घर को चली गयी ,
उधडी सी इस शाम पर टाँगें कब तक वो उम्मीद नयी .
यादें भी अब तो सुलग सुलग कर राख बन गयी हैं ,
धुवाँ - धुवाँ  जीने की कसक भी खाख बन गयी है ,
बस अब तो ये रात ढले और नया सवेरा लाये ,
उजला सूरज जब उसके तन से लिपट जाये .


                              - स्कन्द .

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                सूरज की शाम .


सुबह सुबह
सूरज को आग लगाकर
कोइ उफ़क पर रख जाता है
और दिन भर आकाशगंगा की ख़लाओं में
लुढ़कता रहता है यह सुलगता सूरज...


दिन भर जाने कितने शायर इसमें
अपनी नज़्में झोंका करते हैं
दर्द डुबोया करते हैं
इस गर्म तवे पर ख्वाबों की रोटियां सिकती हैं
नाउम्मीदी के पसीने छिडके जाते हैं
दिन भर... कई दफ़े
इस सोलर कुकर में
जज़्बातों के छौंक लगाये जाते हैं...


सुबह सुबह
सूरज को आग लगाकर
कोइ उफ़क पर रख जाता है...


दिन ढलता है
और अलसाता सूरज
बादलों के झोले में
जहाँ भर के ग़म बटोरकर
फिर उतर जाता है समंदर में


और इस बुझती आग से
उठता है शाम का धुंआ
एक सूरज गर गुरूब होता है
तो उम्मीदों का एक चाँद भी तो उगता है...


शाम तेरे कोहरे में मुझको
अक्सर
हँसता हुआ एक बुझता सूरज दिखता है...


                                          - देव .
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                       शाम का धुआं .

एक उदास सा लम्हा
यादों की टहनियों पर
चुपचाप बैठा ...
मुझे रुलाता है .
ये शाम का धुआं
कुछ गुजरा याद दिलाता है .


दूर दूर तक फैली
सुनसान पगडंडियों में
इस चट्टान में बैठूं ,
तो आँखों में उतर जाता है .
ये शाम का धुआं
कुछ गुजरा याद दिलाता है .


तेरी आरजू में
अकेला पानी में उतरता मेरा अक्स ,
शाम की धीमी रौशनी में
वजूद की तड़प में
दम तोड़ता साया ,
आँखों में किरचे सी चुभाता है .
ये शाम का धुआं
कुछ गुजरा याद दिलाता है .


पहाड़ों की ढलान से
शाम के धुंए में
लम्बे डग भरते उस साये को
कई बार देखा ...
कभी पहुचता नहीं मुझ तक ...
दूर से गुजर जाता है .
कुछ गुजरा याद दिलाता है .


रुसवा होते हम
बेखबर से तुम
बिना कहे यू ही चले जाना ,
बेसबब आंसुओं का मतलब
लोगों को समझाना 
दिल जलाता है .
शाम का धुआं
कुछ गुजरा याद दिलाता है .


                   -  रश्मि प्रिया .


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       ज़ालिम धुआँ ये शाम का ...



कोई फरिश्ता रोशनी राहों में तेरी लायेगा,
ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा।


तरसा हुआ सीना तेरा आँखों में तेरी तिश्नगी,
बस इक सहर की चाह में काटी है तूने ज़िन्दगी,
अब शम्स तेरी हसरतों का जगमगा देगा जहाँ,
अब माह तेरी आरज़ू का इन लबों तक आयेगा


ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा


भीनी सी खुशबू से भरी तेरे चमन की ख़ाक है,
ये खुल्द के जैसी हसीं ये अर्श से भी पाक है,
महले मिसाले क़ैद से वापिस चलें चल लौटकर,
अपने वतन की खाक से लालो गुहर तू पायेगा।


ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा


                                                  - इमरान .    
                               
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तिश्नगी - प्यास,
सहर - सुबह,
शम्स - सूरज,
माहे उमीदो आरज़ू - उम्मीदों का चाँद,
तिश्ना लबों - प्यासे होठ,
खुल्द - जन्नत,
अर्श - आसमान
महले मिसाले क़ैद - क़ैदखाने जैसा महल,
लालो गुहर - बेशक़ीमती पत्थर (खज़ाना)

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                             Silver Mists .




It was that age when evening silver mists
Spread their alluring perfume
Captivated my senses
Drawing faces in the empty valleys
Always shrouded in mystery
A vision of dreams answered
Just almost within my reach
Yet as my outstretched arms
Lengthened across the lake
Faded away into a teasing book
Quickly shutting its flapping leaves

And I
Lost again
Not knowing which page
Held the key to my lock
Of the caged soul that fluttered
Waiting for its soiree
To dance into midnight surrender
A whirlwind of untouched passions
Melting into a pair of nothingness’s
The perfect one

It is now the age
When mists spray the eyes
And slide on sloping deodars
A frosty white glaze
On the leafless tree
Of shattered dreams

Will there ever be a day
When the first moonbeam
Will melt the glaze
And clear the haze
As we stand face to face?

- Sadhana .


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शाम का धुंआ और तुम .




शहरों में जब
शाम का धुंआ बरसता है
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है

याद है...
जब कोहरे की चादर
चढ़ जाती थी कार के शीशों पर
तुम उँगलियों से मेरे नाम का पहला अक्षर
अपने नाम का पहला अक्षर
जोड़ जोड़ कर लिखती थी...

शहरों में जब
शाम का धुंआ बरसता है
अब शीशों पर ओस जमी ही रहती है
और
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है...

पहले शाम पड़े आँगन में
कितनी नज़्में टूट के गिरती थी
आसमान से तारे भी आकर
लॉन में गिरते रहते थे
मैं आग जलाकर रोज़ शाम को
यह नज़्में तारे चुनता रहता था
और धुएं के उस पार बैठी तुम
धुंधली धुंधली सी दिखती रहती थी...

शहर में जब
शाम का धुंआ बरसता है
तुम अब भी आँखों के आँगन में
धुंधली धुंधली सी दिखती हो
और
पागल मन
तुमसे मिलने को तरसता है...


                            - देव .


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शाम का धुआं - मेरा आईना  ...





धुऐं में तस्वीर बनाकर हम, तेरे करीब हो जाते हैं..
शाम के धुऐं में अपने अज़ीज़ पाते हैं .


टुकड़े-टुकड़े होकर हम अलफ़ाज़ से जुड़ जाते हैं..
धुऐं की मंजिल तू बदल.....तेरा आसमान सजाते हैं..


तुझे नज़र से बचाने को, तिल-ओ-हुस्न बन जाते हैं..
धुऐं में तस्वीर बना कर हम, तेरे करीब हो जाते हैं..


इन धुंधली रातों को नया आयाम देते हैं,
जाने क्यूँ हम बेवफ़ा गलियों में, वफ़ा तलाश करते हैं..


तेरे रुखसार को देखते हैं हर बार पहली बार..
रब्त जुड जाता है, अपने धुँएं के साथ


रंज-ए-रुया नहीं, इश्क का इफ्तिताह पाते हैं
धुँएं में तस्वीर बना कर हम तेरे करीब हो जाते हैं..


हर शाम के धुँएं को आईना..और आईने को तकदीर बना जाते हैं
इस धुँएं को दम-साज़ बना, तुझे और जी जाते हैं!!


शाम का धुआं चाहे दीदा-ए-तर बने, तेरे करीब हो जाते हैं..!!


                                              - सुमित उप्रेती .
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रब्त - connection
रंज-ए-रुया - vision, full of grief
इफ्तिताह - honour
दम-साज़ - companion
दीदा-ए-तर - eye full of tears


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                                ये शाम ...


ये शाम जो खड़ी है 
मेरे करीब आ कर ,
और अपने सर्द हाथों से 
छू रही है मुझ को ...
धुआं धुआं सी जुल्फें ,
ज़र्द ज़र्द चेहरा ,
बिखरी....उदास....तनहा .


मैं भी ये देखती हूँ 
क्या रंग बदला दिन ने !!
वो पीला लाल सूरज,
वो रौशनी के मंज़र,
वो धूप , वो उजाले,
वो नर्म गुनगुनाहट 
किस तौर ग़ुम गए हैं ...
धुन्धलाये से चेहरे पे 
कोई नक्श नहीं बाकी !!


पर अब भी देखती हूँ 
मैं शाम की आँखों में 
नन्ही सी टिमटिमाहट .
इक रात का सफ़र है ,
उस पार उजाला है .
उस पार है गर्माहट .


शायद ये जानती है 
कि जब रात ढल चुकेगी ; 
तब फिर इसी चेहरे पर 
सुबह की हंसी होगी .


                    मीता .


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सुलगी तमाम रात, ऐसी शाम का धुआं .




दिल में उमड़ रहा है, किसी नाम का धुआं  
सुलगी तमाम रात, ऐसी शाम का धुआं .

मेरी तलाश आके यहाँ ख़त्म हो गयी
उठने दो ग़र उठे जो इस मुक़ाम का धुंआ .

इस उम्रे-बेक़रार को तनहा ही छोड़ दो
इसका नसीब ख़्वाबे-बेलगाम का धुआं .

जो बन के अश्क़ दर्द को रस्ता ना दे सके 
बेकार की ख़लिश है, ये किस काम का धुआं .

दंगों की आग, शहर की तहजीब खा गयी
है चार सूं दुआओं का, सलाम का धुंआ .

हिन्दू का घर था याकि मुसलमां का घर जला 
देता नहीं पता, ये घर की बाम का धुआं .

झुलसे हुए मरीजों के पैकर से उठ रहा
हकीमो-हाकिमों के इंतेज़ाम का धुआं .

                                                         -   पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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बाम - छत
पैकर - शरीर
हकीम - डाक्टर
हाकिम - राजा, शासक 


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11 टिप्‍पणियां:

Leena Alag ने कहा…

ThIs issue is a beehive...buzzing with intense feelings which do not miss to sting...we are talking of mist here but u guys have completely cleared all facades n exposed the most sensitive side of the soul....each and i mean EACH composition pierces through n through...i don't think this time i can pick couplets because there isnt a single word that hasn't found its way to the heart...u guys r gettin scaringly good...i really dnt know wht more to say but will just add this:
"akaylaypan ke andhayray mein door-door talak
yeh ek khauf jee pe dhuaan ban ke chaaya hai
fisal ke aankh se yeh chann pighal na jaaye kahin
palak-palak ne jissay raah se uthaaya hai
shaam ka yeh udaas sannaataa
dhundhunlkaa,dekh,badhtaa jaataa hai
nahin maaloom yeh dhuaan kyun hai
dil to khush hai ke jaltaa jaataa hai"
-Meena Kumari
...am sooo,soooo proud of Chirantan!

Na ने कहा…

@Leena --Thanks a lot , had been eagerly awaiting your opinion.
kabhi kabhi beech mein daanth bhi lagaya karo, ki hum bhi satat prayas karein pragati ka.
thank you so much ,Leena

Reena Pant ने कहा…

बहुत खूब ...सपनो की दुनिया से यथार्थ की गहराई तक का यह सफ़र जो कविताओं को माध्यम बनाकर तय किया है , बहुत सुंदर है ...बधाई व् शुभकामनाएं

Reena Pant ने कहा…

इक शाम के धुएं में
जो तस्वीर खो गयी थी
सुबह की किरण के साथ
वो मिल गयी है.......
खोने में जो तड़प थी
मिलन में भी वही है
एक आरजू थी वो
जो शाम का धुआ थी
एक आरजू है ये
जो सुबह की रौशनी है

अनुपमा पाठक ने कहा…

सुबह सारी कवितायेँ पढ़ी थीं... अभी शाम के धुओं को पुनः महसूस करने बैठे तो सभी रचनाओं पर कुछ लिखने का मन हो आया... आजकल यहाँ stockholm में सुबह से ही शाम के धुओं को महसूस किया जा सकता है...! Anyways, going through this collection was nice and rewarding experience!!!
'तो ...
मैं भी सोचती हूँ
कि इक ख्वाब ही बुन डालूँ .'
@मीता जी, ख़्वाब बुनते रहे जायें तो शामें मुस्कुराती रहती हैं... सुन्दर रचना!
'शाम का धुवाँ उसकी आँखों में
मोतिया बन कर उतर आया है ;'
@स्कन्द जी, दर्द के जो रूपक गढ़े हैं... वह कविता में बहते हुए अंत तक बांधे रखता है... और बाद में भी ये पंक्तियाँ याद रह जाती हैं! हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति!
'शाम तेरे कोहरे में मुझको
अक्सर
हँसता हुआ एक बुझता सूरज दिखता है...'
@देव जी, वाह!
@रश्मि जी, सच कितना कुछ याद दिलाता है ढलती शाम का धुआं, सुन्दर रचना!
'ज़ालिम धुआँ ये शाम का फिर कुछ नहीं कर पायेगा।'
@इमरान जी, बहुत खूब!
@साधना जी, Mists and haze do get cleared one day... Beautiful poem!
@देव जी, 'शाम का धुंआ और तुम' में सुन्दर एहसासों की अभिव्यक्ति के लिए बधाई!
'इस धुँएं को दम-साज़ बना, तुझे और जी जाते हैं!!'
@सुमिता जी, बहुत खूब!
'पर अब भी देखती हूँ
मैं शाम की आँखों में
नन्ही सी टिमटिमाहट .'
ये यूँ ही दिखती रहे सदा...! सुन्दर!!!

'मेरी तलाश आके यहाँ ख़त्म हो गयी
उठने दो ग़र उठे जो इस मुक़ाम का धुंआ .'
बहुत खूब!
श्रेष्ठ भावों से सजी सुन्दर ग़ज़ल के लिए पुष्पेन्द्र जी को बधाई!
Best wishes to Chirantan!!!

meeta ने कहा…

@लीना आप ने मीना जी की इस खूबसूरत कविता से अपनी टिप्पणी को इतना आकर्षक बना दिया...पढ़ कर मज़ा आ गया.बहुत धन्यवाद.

@रीना दी - खोने में जो तड़प थी,मिलने में भी वही है... क्या बात कही आपने !! Thanks di .

@अनुपमा जी इतनी गहराई से हम सब को पढने और हर एक का हौसला बढ़ने के लिए आप का हार्दिक आभार.

Giribala ने कहा…

Beautiful, Meeta! All poems are nice! Yours can be made into a song :-)

Na ने कहा…

@Reena -Thanks for the poetic appreciation.We love it
@Anupama-You are already living in a beautiful place..The way you have chosen the best of each one,is really heartwarming.Thank you.Keep encouraging us
@Giribala -Thanks a lot for your words

meeta ने कहा…

Thanks Giribala !! Sweet of you :)

Unknown ने कहा…

हैरान न हो जज्बातों की खामोशियों पे
तूफ़ान छुपे है दिल की हर सलवटों में
जरा सा जो गर सहला दिया जो तुमने
शब्दों के भवरों में उलझ के रह जाओगे ......

इस से जायदा नहीं कह सकता हु
एक एक शब्द तिलस्म से है फिर वोह स्कन्द के हो, मीता के, साधना के हो या फिर पुष्पेन्द्र ...सुमित देव इमरान का जादू ... धुवों का सैलाब एसा बहा की में बस बहता गया बहता गया बहता ही गया .........

Na ने कहा…

@ Vinay -What a fantastic encouragement you have given us.many thanks, keep reading us..

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