सोमवार, 2 जनवरी 2012

वो खिड़की तेरी यादों से आई है



वही जाना पहचाना सा शहर 
वो नीम तारीक़ मोहल्ले 
दीवारों से लटकती हुई उम्मीद की बेलें 
और वही एक खिड़की 
जो बंद रहती थी तब भी 
बंद लगती है अब भी...

मन के गलियारे से गुज़रता हूँ  जब भी 
ये खिड़की रोक लेती है 
पाँव में यादों की कीलें ठोक देती है 
वो खिड़की जिसके झरोखों से 
मैं तुमको देखता रहता था 
तुम ज़ुल्फें झटकती थी 
मैं भीगता रहता था 
वो खिड़की जिसकी जानिब  
रात को चंदा उतरता था 
और उसकी ओट से मैं  
तुम्हारे हुस्न के टुकड़े कुतरता था 

वो जो सुबह की दस्तक पर 
तुम खोल कर किवाड़ 
मुझ पर मोगरे के फूल फेंका करती थी 
मैं भी फ़िराक़ की नज़्मो के टुकड़े 
उस खिड़की से तुम्हारी छत पर फेंकता था 

मन के गलियारे से गुज़रता हूँ जब भी 
ये खिड़की रोक लेती है 
और अपने दर्दाराए हाथों से 
कुछ मोगरे के टुकड़े फ़ेंक देती है...

तुम अपनी गीली ज़ुल्फों को  
जब छत पर सुखाती थी 
तो उनसे छान के आई धूप 
मेरे कमरे का ज़र्रा ज़र्रा महकाती थी 
ये खिड़की याद है जिसको 
वो नादान मोहब्बत के 
शीरी फ़रहाद के किस्से 
वो खिड़की जानती थी 
यह दो दिल हैं उसी नासमझ 
तादाद के हिस्से 

मन के गलियारे से गुज़रता हूँ जब भी 
यह खिड़की रोक लेती है 
इश्क़ जो कुछ रह गया था इसके खांचे में 
वो जाले फ़ेंक देती है...

इस अँधेरे शहर में 
तेरी यादों की रोशनाई है 
मन के गलियारे में 
वो एक खिड़की तेरी यादों से आई है 

वो खिड़की बंद थी तब भी 
यह अब भी बंद लगती है...


                        - देव .

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