सोमवार, 16 जनवरी 2012

आवाज़ की आस

लफ्ज़ बेलिबास हैं
इन्हें... एक अदद आवाज़ की ही आस है...


बहुत दिनों से
तुम्हारी आवाज़ का झरना
आँखों के कोहसार से कूदा नहीं है कानों में
तुम्हारी साँसों की छुईमुई से
गुदगुदाए नहीं हैं जिस्म के रेशे

बहुत दिनों से
तुम्हारी आवाज़ को पहना नहीं है लफ़्ज़ों ने




लफ्ज़ बेलिबास हैं
इन्हें... एक अदद आवाज़ की ही आस है...

वो दो मिसरों को तराश कर
जो बनाए थे झुमके
वो कहाँ पहने तुमने
ग़ज़लों का मांग टीका 
रंग सिन्दूरी कभी रच न सका

बहुत दिनों से
यह अधूरे पैराहन  संभाले बैठ हूँ
तुम एक बार जो आवाज़ देकर बुलाओ मुझे
ये चुप्पी का बाँध तोड़ो 
मुझसे रूठो... मनाओ मुझे

जो एक बार सिर्फ तेरी आवाज़ मिले
तो यतीम लफ़्ज़ों को जीने की आस मिले

जो लफ्ज़ बेलिबास हैं
उन्हें लिबास मिले...


                     - देव .

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