सोमवार, 9 जनवरी 2012

नज़्म उम्मीद से है

चीनी शक्कर, मिश्री विश्री
                    भूल गई है
आँखें मीचे
होठों पर चटखारे की जीभ फिराती रहती है
खट्टी अमिया, गाच्नी मिटटी
उफ़... क्या क्या यह खा जाती है



नज़्म के पाँव भारी हैं
नज़्म उम्मीद से है...


ग़ालिब के आशारों पर
दिन भर लिपटी रहती है
मीर, ज़ौक, ज़फर के नग्मे
ख्वाब में बुनती रहती है


कहते हैं...
हामिला जो देखे... वैसी सूरत पाती है
                           वैसी सीरत पाती है
अब देखें...
यह नज़्म कहाँ तक
किस शायर पर जाती है...


नज़्म के पाँव भारी हैं
नज़्म उम्मीद से है...


खाली बैठे दोपहरों को
आने वाली नज्मों के उन्वान सोचती रहती है
...यह नाम सोचती रहती है
जब कोई मिसरा करवट लेता है अन्दर
यह हाथ लगाकर पेट पर थपकी देती रहती है
और धड़कनों की चादर पर
कान लगाकर सुनती रहती है


नज़्म के पाँव भारी हैं
नज़्म उम्मीद से है...


शेर बने या गीत बने
नज़्म बने या दोहा
जो भी बने यह नज़्म की बेटी
बस पिघलाए नफरत का लोहा


मुझ शायर से नज़्म को
ऐसी ही कोई उम्मीद है...


नज़्म के पाँव भारी हैं
नज़्म उम्मीद से है... 


                            - देव .

1 टिप्पणी:

meeta ने कहा…

This is an amazing creation by you devesh. Wishiing you lots of such creativity . All the best .

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