तुझ से मुक्कदस ?
वही दरो- दीवार
रोगन से सजे हुए ,
तराशे कांच के फानूस
छत पर धजे हुए ,
कीमती कालीन
पैरों पर बिछे हुए ,
मखमली लिबास
जिस्मों पर खिंचे हुए .
सोने की चमक ,
चांदी की दमक ,
सिक्कों की खनक ,
वैभव की धनक ,
अंधी इच्छा का शोर ...
बस पा लेने का जोर .
ना बुझने वाली प्यास ,
एक अंतहीन तलाश .
सांसों सासों पर झूलती
झूठी जन्नत की आस .
तू नहीं है इन पैमानों में
तू है मन का विश्वास .
जो रहता है यहीं कहीं
मेरे वजूद के पास .
और क्या खो सकता हूँ मैं
तुझसे जरूरी ?
तू तो है अक्षत प्रकाश
आबद्ध हवा सा एहसास
ना सन्नाटा तू , ना शोर कोई
ना बंधन तू ,ना डोर कोई
ना जबर है तू ,ना जोर कोई
ना ओर है तू ,ना छोर कोई .
ना तू पीर कोई ना पैगम्बर
मंदिर मस्जिद ना तेरा घर
जहाँ झुके सजदे में सर
वहीं तू आता है नज़र .
तू बच्चों की मुस्कान है
तू गीता तू ही कुरान है
तू व्रत है तू रमजान है
तू भजन तू ही अज़ान है .
मैं जो भी हूँ बस तुझ से हूँ
तू ही मेरी पहचान है ,
तू होने का है एहसास
जो है मेरे वजूद के पास .
- स्कन्द .
- स्कन्द .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें