गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

शहरयार - विनम्र श्रद्धांजली .

अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान
जन्म: 16 जून 1936
निधन: 13 फ़रवरी २०१२



शहरयार साहब के कुछ चुनिन्दा शेर -

उम्मीद से कम चश्म ए खरीदार में आये 
हम लोग ज़रा देर  से बाज़ार में आये .
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सभी को ग़म है समंदर के खुश्क होने का 
कि खेल ख़त्म हुआ कश्तियाँ डुबोने का .
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न जिस कि शक्ल है कोई , न जिस का नाम है कोई 
इक ऐसी शै का क्यूँ हमें अज़ल से इंतज़ार है .
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फिर वही ख्वाब ओ हकीक़त का तसादुम होगा 
फिर कोई मंजिले बेनाम बुलाती है हमें .
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ज़िन्दगी जैसी तवक्को थी , नहीं , कुछ कम है 
हर घडी होता है एहसास , कहीं कुछ कम है .
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लोग सर फोड़ कर भी देख चुके 
ग़म की दीवार टूटती ही नहीं .
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इसी नतीजे पे पहुँचते हैं सभी आखिर में 
हासिल ए सैर ए जहाँ कुछ नहीं हैरानी है .
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मर्क़ज़ ए दीदा ओ दिल तेरा तसव्वुर था कभी 
आज इस बात पे कितनी हंसी आती है हमें .
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वो देख लो वो समंदर खुश्क होने लगा 
जिसे था दावा मेरी प्यास बुझाने का .
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ज़मीं तेरी कशिश खींचती रही हमको 
गए ज़रूर थे कुछ दूर महताब के साथ .
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शहरयार साहब की यह खूबसूरत ग़ज़ल जो उन्होंने गमन फिल्म के लिए लिखी थी उनकी याद में आप के साथ बाँट रहे हैं .

6 टिप्‍पणियां:

induravisinghj ने कहा…

लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
ग़म की दीवार टूटती ही नहीं ....

adbhut hai ye lekhan,hai hamara shrdheya naman...

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

सही कहा आपने इंदु रवि जी

कविता रावत ने कहा…

vinmra shrandhanjali swaroop sundar prastuti hetu aabhar!

vidya ने कहा…

......

vidya ने कहा…

श्रद्धा सुमन......

Leena Alag ने कहा…

Tributes like these are all that a poet and a visionary earns in a lifetime...anybody who is living in soooo many hearts can not possibly be gone spiritually!...this tribute is a veryyy thoughtful gesture by team CHIRANTAN who in their own little ways are keeping the spirit of poetry and irreplacable poets like him alive...would like to share a very sad couplet which seems now to be a pointer at this unfortunate moment by Shahrayar himself...

"आ रही है जिस्म की दीवार गिरने की सदा
इक अजब ख्वाहिश थी, जो अब के बरस पूरी हुई..."...R.I.P

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