सोमवार, 19 मार्च 2012

मैं - तू .

बीज से पौधा ...
पौधे से वृक्ष बनते देखा है
मुझ में , मुझ को ...
मैंने .

तेरी ज़मीन पर .



फैली बाँहों में
मौसमी परिंदों को
आते , चहचहाते
उड़ कर जाते देखा है ...
हवाओं में अपनी पत्तियों को
सरसराते देखा है .

और महसूस किया है
अपनी जड़ों को फैलते
तेरी ज़मीन पर .



जब किसी रोज़
मेरी फैली बाहें थक जाएँगी ,
झर जाएगी छांह ,
और परिंदे सब उड़ जायेंगे ,
तब
समेट लेना
मुझे खुद में .

वृक्ष से पुनः बीज बनने के उस सफ़र में ,
तेरी मिटटी में मिल जाने का ख़याल
सुकून देता है .



जब भी मैं देखती हूँ
मुझ में मुझ को
मैं और शिद्दत से
चाहती हूँ तुझ को .  

                   - मीता .

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