जिस हद तक नज़रें जाती हैं ,
लहरों ही से टकराती हैं ...
इस विस्तृत जीवन सागर में
मैं क्या हूँ ....एक कतरा भी नहीं!
मेरा होना गैर ज़रूरी है
महफ़िल मेरे बाद भी पूरी है
मैं उठ के चला जाऊं भी तो क्या
मैं बुझना अगर चाहूं भी तो क्या ...
मैं शमा भी नहीं, धुआं भी नहीं.
मैं नहीं भी रहा तो क्या कम होगा
दुनिया का येही आलम होगा
मेरे दर्द से कौन दुखेगा यहाँ
मैं रुका भी तो कौन रुकेगा यहाँ
मेरे होने का इसको गुमां भी नहीं.
फिर भी मैं हूँ, और जिंदा हूँ.
एहसासों का एक पुलिंदा हूँ
मेरे हिस्से का एक जहाँ भी है
पल भर को नामो निशां भी है
फिर... मेरा कोई निशां भी नहीं.
- मीता .
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