इंसान सुबह से शाम तक जिस दौड़-भाग में लगा है, जिस हालात से जूझ रहा है, जिन मुश्किलात से दो-चार हो रहा है, जिसे कभी वो ग़मे-दौरां कहता है और कभी ग़मे-जानां कहता है, सब अपने वजूद को बनाए रखने की ही कशमकश है. घर हो या बाहर, रोज़गार हो या महफ़िल, सफ़र हो या मंजिल, जद्दोजहद जारी है इस वजूद की ख़ातिर.
लकिन ये कशमकश तब एक सीरीयस शकल ले लेती है जब इंसान खुद से सवाल कर बैठता है कि आखिर उसका वजूद क्या है और क्यूँ है? तमाम सूफी ख़यालात और शायरी में इस सवाल का जवाब ढूँढने की कोशिश होती आयी है. कहते हैं कुछ को जवाब मिल भी गया. खैर, अब ये तो वही जानें जिनके अन्दर ये इल्म की रोशनी हुई हो और जो ख़ास हो गए. हम और आप तो मेरे ख़याल से बाकी सब के साथ अभी भी आम लोगों की भीड़ में शामिल हैं, अपना-अपना वजूद तलाशते हुए.
और अगर आपको लगे कि ये कुछ ज्यादा ही गहरी सोच का मसअला होता जा रहा है तो फिर आइये और उस सदाबहार, फक्कड़ लेकिन बेहद जहीन शायर की ये लाईनें पढ़िए और सब भूल जाइए:
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता
अब ये बताने की ज़रूरत तो नहीं कि ये शेर किसका है!
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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आज हमारे ख़ास मेहमान हैं कराची , पाकिस्तान के मशहूर शायर कमर जैदी जी . उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल उन्होंने हमसे साझा की है -
आज हमारे ख़ास मेहमान हैं कराची , पाकिस्तान के मशहूर शायर कमर जैदी जी . उनकी एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल उन्होंने हमसे साझा की है -
मैं हूँ.
हज़ार बार कहा ग़म ने कुछ नहीं है तू
हज़ार बार मेरे सब्र ने कहा, मैं हूँ .
हुआ सवाल कि सबसे हसीं है कौन यहाँ
तो ऐतमाद से बोले वो बेवफा, मैं हूँ.
बयां में तंजो-तमस्खुर का इम्तेज़ाज भी था
सो यूँ लगा कि यहाँ सबसे कुज-अदा मैं हूँ.
मैं कुछ नहीं था मगर फिर भी खुदपसंदी में
गुमां मुझे भी येही उम्र भर रहा, मैं हूँ.
सदा जो मुझ पे रही माइल-ए-जफा किस्मत
जो अपने आप से अक्सर रहा खफा, मैं हूँ.
ज़माना पूछ रहा है कि माह-नूर है कौन,
वो मेरी जान-ए-वफ़ा, उसका हम-नवा मैं हूँ.
अना का लफ्ज़ खुदा के लिए ही ज़ेबा है
बजा है सिर्फ उसी को, कहे खुदा, मैं हूँ.
कमर खुदा के इलावा नहीं कोई ऐसा
जो अपने आप को सबसे कहे सिवा, मैं हूँ.
- कमर जैदी .
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ऐतमाद - भरोसा .
तंजो तमस्खुर - ताने , मज़ाक .
इम्तेजाज़ - तालमेल .
माइल ए जफा - जफा पे आमादा .
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वह मैं हूँ
मुँह-अँधेरे बुहारी गई सड़क में
जो चमक है--
वह मैं हूँ !
कुशल हाथों से तराशे
खिलौने देखकर
पुलकित होते हैं बच्चे
बच्चे के चेहरे पर जो पुलक है--
वह मैं हूँ !
खेत की माटी में
उगते अन्न की ख़ुशबू--
मैं हूँ !
जिसे झाड़-पोंछकर भेज देते हैं वे
उनके घरों में
भूलकर अपने घरों के
भूख से बिलबिलाते बच्चों का रुदन
रुदन में जो भूख है--
वह मैं हूँ !
प्रताड़ित-शोषित जनों के
क्षत-विक्षत चेहरों पर
घावों की तरह चिपके हैं
सन्ताप भरे दिन
उन चेहरों में शेष बची हैं
जो उम्मीदें अभी --
वह मैं हूँ !
पेड़ों में नदी का जल
धूप-हवा में
श्रमिक-शोणित गंध
बाढ़ में बह गई झोंपड़ी का दर्द
सूखे में दरकती धरती का बाँझपन
वह मैं हूँ !
सिर्फ मैं हूँ !!!
ओम प्रकाश वाल्मीकि।
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टुकड़े वजूद के
मुझे भी दिखाई देते है
दरवाज़े में टंगे name plate में,
उन फूल पत्तियों के बीच
खूबसूरती से उकेरे नाम में.
देर से आने पर
तुम्हारी मीठी सी उलाहना में...
आखिर बच्चो के
व्यव्हार,
प्रदर्शन
में भी तो शामिल है मेरा वजूद.
घर के अन्दर
बिखरी हर चीज़ में ढूंढ़ लेती हूँ
अपना वजूद...
और तह कर के रख देती हूँ,
ताकि समय पर
तुम दिखा सको मुझको मेरा वजूद.
- रश्मि प्रिया.
___________________________________________
अस्तित्व.
सत और असत,
ब्रह्म और माया,
दो वृत्तियाँ व्याप्त हैं ब्रह्माण्ड में.
निर्भर है इन्हीं पर
अस्तित्व सभी का.
सत - कालजयी,
असत - कालक्षयी.
सत - सतत जीवन परिपूर्ण,
असत - जीवन शक्ति अपूर्ण .
सत - सत्यमेव जयते,
असत - काल पराजित, क्षयी.
सत - अगोचर अस्तित्व,
असत - गोचर अस्तित्व.
जीव - सत असत विनिर्मित पिंड.
जीव का अस्तित्व - असत के क्षय काल तक.
सत का अस्तित्व - ब्रह्म में समाविष्य होने तक
अथवा
पुनः जीव के अस्तित्व में आने तक.
- ललित मोहन पांडे .
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मैं क्या हूँ?
जिस हद तक नज़रें जाती हैं,
लहरों ही से टकराती हैं...
इस विस्तृत जीवन सागर में
मैं क्या हूँ..., एक कतरा भी नहीं!
मेरा होना गैर ज़रूरी है,
महफ़िल मेरे बाद भी पूरी है.
मैं उठ के चला जाऊं भी तो क्या
मैं बुझना अगर चाहूं भी तो क्या...
मैं शमा भी नहीं..., धुआं भी नहीं.
मैं नहीं भी रहा तो क्या कम होगा.
दुनिया का येही आलम होगा.
मेरे दर्द से कौन दुखेगा यहाँ,
मैं रुका भी तो कौन रुकेगा यहाँ.
मेरे होने का इसको गुमां भी नहीं.
फिर भी..., मैं हूँ, और जिंदा हूँ.
एहसासों का एक पुलिंदा हूँ
मेरे हिस्से का एक जहाँ भी है
पल भर कोई नामो निशां भी है
फिर..., मेरा कोई निशां भी नहीं.
- मीता
__________________________________________
वजूद मुझसे ख़फा है मेरा...
ये बस मुझी से गिला है मेरा,
वजूद मुझसे ख़फा है मेरा।
खुली फज़ा है मेरा ठिकाना,
वजूद मिस्ले सबा है मेरा।
हर एक दिल को ख़बर है मेरी,
वजूद लेकिन छुपा है मेरा।
मिला न मुझसा कोई जहाँ में,
वजूद कितना जुदा है मेरा।
बरस रहा है समा मुसलसल,
वजूद फिर भी जला है मेरा।
सुकूँ से मैंने जो साँस ली है,
वजूद सबको चुभा है मेरा।
ग़मों का अज्दा निगल न जाये,
वजूद सहमा डरा है मेरा।
मेरी तमन्ना तो गिर चुकी है,
वजूद फिर भी खड़ा है मेरा।
- इमरान .
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*मिस्ले सबा - हवा की तरह
अज्दा - अजगर
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ला-वजूद कर जाना,
क्या बहुत ज़रूरी था?
ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है
झूठी इस दुनिया में
सत्य का अस्तित्व कहाँ है?
ये तलाशने को भटके मन
खामोश ताके ऊपर से नील गगन.
सुबह से रात हो गयी,
उलझनें कितनी साथ हो गयीं
फिर चाँद का मन पिघल गया
वह तुरंत बादलों से निकल गया.
साथ चलते हुए कहता रहा
संग संग मानसिक हलचलों को झेलता रहा
अस्तित्व के प्रश्न पर मौन हो गया
एक रौशनी खिली और भटकाव सारा गौण हो गया.
कहने लगा चाँद -
अंधकार का अस्तित्व है जब तक
रौशनी की पूजा है तब तक.
झूठ जब तक हर मोड़ पर खड़ा है
सत्य वहीँ जीतने के लिए अड़ा है.
मृत्यु जब तक मुस्कुरा रही है
जीवन की कलियाँ तब तक खिलखिला रही हैं
उदासी का आलम है जब तक
खुशियों का अस्तित्व है वहीँ कहीं तब तक.
कोई अकेला नहीं आया है
प्रभु ने सब को जोड़ों में बनाया है.
बारी बारी से सब हमारे जीवन में आते हैं.
अस्तित्व में आता है जीवन तो मौत को भी हम एक दिन अपनाते हैं.
अब देखो न
मेरी चांदनी का अस्तित्व सूरज से है
उधर की रौशनी से चमकता हूँ
लेकिन दिवस भर जो नहीं कर पाया सूरज
उसी की रौशनी से उसका ही काम करता हूँ...
दर्द तुम्हारे हरता हूँ
नीरव रात्रि में बातें तुमसे करता हूँ
तर्क सारे रख कर मौन हो जाता हूँ.
यहाँ बात मेरी नहीं तुम्हारी है, मैं गौण हो जाता हूँ.
अस्तित्व का प्रश्न है
तो मन ही मन गुनता हूँ
धडकनें तेरे ह्रदय की
साफ़ साफ़ सुनता हूँ.
सुन ध्यान धर
और इस बात का सम्मान कर
कि तेरा अस्तित्व ही प्रमाण है,
जीवन झूठा नहीं, वह सत्य का संधान है.
अंतिम छोर पर मृत्यु की गोद है
चल कि उसे तलाशना है तुझे,
अपने अस्तित्व का भान तराशना है तुझे.
इतना कहते ही खिल उठा चाँद का मन,
आ गए थे दिनमान, अब खामोश नहीं था गगन.
जीवन की इन टेढ़ी मेढ़ी राहों पर ही कहीं मुक्ति का बोध है.
- अनुपमा पाठक .
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सच का अस्तित्व.
वो 'दो ' थे.
लोग ये जानते हैं
उन्होंने प्रेमविवाह किया,
दिखता भी तो वही है
'पति' को दफ्तर भेजते समय
वो जब यंत्रचलित सा हाथ हिलाती है
और
मुस्कुराती है,
कोई उसे नहीं पढ़ पाता
क्या चल रहा है?
लोगों ने उसके बाद
उसे भी कॉलेज जाते देखा है,
कहीं कोई गड़बड़ नहीं
कोई ऊँची आवाज़ नहीं...
पर पलंग के दो सिरों में बैठे
अपने अपने लैपटॉप में उलझे,
बीच में पसरे बासीपन को
virtual world की
ताजगी में बदलने की कोशिश करते,
अपने जैसे 'वजूद ' तलाशते लोगों के बीच...
दूसरों के दर्द बांटते
खुशियों में साझेदारी करते,
कुछ देर के लिए सही
इंधन जुटा लेते हैं
बढ़ा लेते है अपनी updates
सम्हाल लेते हैं अपने गिरते 'harmone'
के स्तर को...
और तैयार हो जाते है
जिंदगी से जूझने के लिए.
- रश्मि प्रिया.
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अस्तित्व...
लकीरों में बांध कर
खुद को
आदम हव्वा के जायों ने
बही खता बना दिया.
कहीं हाशिये हैं खाली खाली,
कहीं नफे की कालिख,
कहीं नुकसान की लाली...
कभी जोड़ना, कभी घटाना
कभी लिखना, कभी मिटाना.
फिर भी देखो
जब तब जेबें
रहती हैं बिलकुल खाली.
सब कुछ
है यहाँ नक़द अदा करना.
उधर नहीं मिल पायेगा.
कर्मों का लेखा जोखा
कोई साथ नहीं ले जायेगा.
कोई हुंडी नहीं मिलेगी
जिस को ऊपर भुनायेगा.
फिर क्यों इस नरक को चुनते हैं
इच्छाओं के जाल बुनते हैं.
उलझ लिपट भ्रमजालों से
दलालों की क्यों सुनते हैं.
अस्तित्व गहरा समंदर है,
जो अपने ही अन्दर है.
जो भीतर उतर जायेगा,
वो ही मोती पायेगा.
- स्कन्द.
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मैं... मेरा वजूद.
कल शाम
खुद से खुद को कुरेद के
सामने बिठा लिया...
फिर पूछा
क्या मायने हैं?
किस मोड़ पर ये खड़ी है तू?
ज़िन्दगी ये कहाँ आ पड़ी है तू?
टप टप की आवाज़
सन्नाटे को चीर गयी.
अस्तित्व की पर्त दर पर्त छील गयी.
वक़्त की किताब के सब सफे खुल गए...
वो बाबुल की गोद में झूल जाना,
चिंदी चिंदी सी सपनों की गुडिया,
मंद मंद बयार सी वो कड़ियाँ...
वो बस्ते को टांग स्कूल जाना
चूने से सड़क पर रेखाएं बनाना.
फिर एक दिन सब पीछे छूट गया,
एक नया भेष मिला...
नया आँगन, नया देश मिला
कुछ जैसे टूट गया.
हौले हौले खुद को सम्हाला,
साँसों को थामा ही था
कि एक नया खूंटा गड गया
नन्हा सा पौधा गोद खिल गया.
सींच कर उसको
बंधाया हौसलों को ढाढस,
कि अब तो पहचान न बदलेगी
ये रुत अब तो न ढलेगी.
वक़्त की सुइयां बढती रहीं,
आवाजें धीरे धीरे घटने लगीं
तसवीरें भी धुंधलाने लगीं
धीरे धीरे जेहन से मिटने लगीं.
कतरे आंसू के अब सूख गए
एहसासों के समंदर हिलने लगे
बदलने लगे सब ख्वाब,
वजूद को चेहरे मिलने लगे .
क्या कहूं पहचान क्या है,
वो तो चली गयी जाने कब...
यादें और बूढी हो गयी हैं.
प्रश्न मौन बन मुझ से ही पूछता है
क्या यही अस्तित्व है?
- विनय मेहता.
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वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
यकीन मुझपे नहीं है तो राहगीर से पूछ
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मैं - तू
बीज से पौधा...
पौधे से वृक्ष बनते देखा है
मुझ में, मुझ को...
मैंने.
तेरी ज़मीन पर.
फैली बाँहों में
मौसमी परिंदों को
आते, चहचहाते
उड़ कर जाते देखा है...
हवाओं में अपनी पत्तियों को
सरसराते देखा है.
और महसूस किया है
अपनी जड़ों को फैलते
तेरी ज़मीन पर.
जब किसी रोज़
मेरी फैली बाहें थक जाएँगी,
झर जाएगी छांह,
और परिंदे सब उड़ जायेंगे,
तब
समेट लेना
मुझे खुद में.
वृक्ष से पुनः बीज बनने के उस सफ़र में,
तेरी मिटटी में मिल जाने का ख़याल
सुकून देता है.
जब भी मैं देखती हूँ
मुझ में मुझ को
मैं और शिद्दत से
चाहती हूँ तुझ को.
- मीता
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For today's masters category we are presenting this poem of Lord Tennyson -
आज के विषय 'अस्तित्व' से सम्बंधित ये ग़ज़ल सरगम के अंतर्गत प्रस्तुत है - मुझ में जो कुछ अच्छा है ...
- रश्मि प्रिया.
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अस्तित्व.
सत और असत,
ब्रह्म और माया,
दो वृत्तियाँ व्याप्त हैं ब्रह्माण्ड में.
निर्भर है इन्हीं पर
अस्तित्व सभी का.
सत - कालजयी,
असत - कालक्षयी.
सत - सतत जीवन परिपूर्ण,
असत - जीवन शक्ति अपूर्ण .
सत - सत्यमेव जयते,
असत - काल पराजित, क्षयी.
सत - अगोचर अस्तित्व,
असत - गोचर अस्तित्व.
जीव - सत असत विनिर्मित पिंड.
जीव का अस्तित्व - असत के क्षय काल तक.
सत का अस्तित्व - ब्रह्म में समाविष्य होने तक
अथवा
पुनः जीव के अस्तित्व में आने तक.
- ललित मोहन पांडे .
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मैं क्या हूँ?
जिस हद तक नज़रें जाती हैं,
लहरों ही से टकराती हैं...
इस विस्तृत जीवन सागर में
मैं क्या हूँ..., एक कतरा भी नहीं!
मेरा होना गैर ज़रूरी है,
महफ़िल मेरे बाद भी पूरी है.
मैं उठ के चला जाऊं भी तो क्या
मैं बुझना अगर चाहूं भी तो क्या...
मैं शमा भी नहीं..., धुआं भी नहीं.
मैं नहीं भी रहा तो क्या कम होगा.
दुनिया का येही आलम होगा.
मेरे दर्द से कौन दुखेगा यहाँ,
मैं रुका भी तो कौन रुकेगा यहाँ.
मेरे होने का इसको गुमां भी नहीं.
फिर भी..., मैं हूँ, और जिंदा हूँ.
एहसासों का एक पुलिंदा हूँ
मेरे हिस्से का एक जहाँ भी है
पल भर कोई नामो निशां भी है
फिर..., मेरा कोई निशां भी नहीं.
- मीता
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वजूद मुझसे ख़फा है मेरा...
ये बस मुझी से गिला है मेरा,
वजूद मुझसे ख़फा है मेरा।
खुली फज़ा है मेरा ठिकाना,
वजूद मिस्ले सबा है मेरा।
हर एक दिल को ख़बर है मेरी,
वजूद लेकिन छुपा है मेरा।
मिला न मुझसा कोई जहाँ में,
वजूद कितना जुदा है मेरा।
बरस रहा है समा मुसलसल,
वजूद फिर भी जला है मेरा।
सुकूँ से मैंने जो साँस ली है,
वजूद सबको चुभा है मेरा।
ग़मों का अज्दा निगल न जाये,
वजूद सहमा डरा है मेरा।
मेरी तमन्ना तो गिर चुकी है,
वजूद फिर भी खड़ा है मेरा।
- इमरान .
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*मिस्ले सबा - हवा की तरह
अज्दा - अजगर
_________________________________________________________________________
ला-वजूद कर जाना,
क्या बहुत ज़रूरी था?
ख़्वाब के झरोखों पे धूप-छाँव तारी है
बेरहम उदासी है, बेसबब खुमारी है
आँधियों में जिस तरह तितलियाँ बिखरती हैं
हसरतों के पंखों का टूटना भी जारी है
दूरियों का आ जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
तल्खियों से हो गए रूबरू, मुकद्दर है
बेकरार लम्हों का बेसुकून मंजर है
चश्मे-नम की घाटी में दर्द का समंदर है
बूँद-बूँद छलका है, बेपनाह अन्दर है
हंस के यूँ रुला जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
यूं तेरा चले जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
तुम नहीं तो देखना ख़ुदको, हासिल ही नहीं
ज़िस्म से जुदा-जुदा रूह, शामिल ही नहीं
एक सरापा ख़ामुशी, कोई महफ़िल ही नहीं
धड़कनों के शोर के दिल ये क़ाबिल ही नहीं
हर निशाँ मिटा जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
ला-वजूद कर जाना, क्या बहुत ज़रूरी था?
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल.
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अस्तित्व का भान...
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल.
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अस्तित्व का भान...
झूठी इस दुनिया में
सत्य का अस्तित्व कहाँ है?
ये तलाशने को भटके मन
खामोश ताके ऊपर से नील गगन.
सुबह से रात हो गयी,
उलझनें कितनी साथ हो गयीं
फिर चाँद का मन पिघल गया
वह तुरंत बादलों से निकल गया.
साथ चलते हुए कहता रहा
संग संग मानसिक हलचलों को झेलता रहा
अस्तित्व के प्रश्न पर मौन हो गया
एक रौशनी खिली और भटकाव सारा गौण हो गया.
कहने लगा चाँद -
अंधकार का अस्तित्व है जब तक
रौशनी की पूजा है तब तक.
झूठ जब तक हर मोड़ पर खड़ा है
सत्य वहीँ जीतने के लिए अड़ा है.
मृत्यु जब तक मुस्कुरा रही है
जीवन की कलियाँ तब तक खिलखिला रही हैं
उदासी का आलम है जब तक
खुशियों का अस्तित्व है वहीँ कहीं तब तक.
कोई अकेला नहीं आया है
प्रभु ने सब को जोड़ों में बनाया है.
बारी बारी से सब हमारे जीवन में आते हैं.
अस्तित्व में आता है जीवन तो मौत को भी हम एक दिन अपनाते हैं.
अब देखो न
मेरी चांदनी का अस्तित्व सूरज से है
उधर की रौशनी से चमकता हूँ
लेकिन दिवस भर जो नहीं कर पाया सूरज
उसी की रौशनी से उसका ही काम करता हूँ...
दर्द तुम्हारे हरता हूँ
नीरव रात्रि में बातें तुमसे करता हूँ
तर्क सारे रख कर मौन हो जाता हूँ.
यहाँ बात मेरी नहीं तुम्हारी है, मैं गौण हो जाता हूँ.
अस्तित्व का प्रश्न है
तो मन ही मन गुनता हूँ
धडकनें तेरे ह्रदय की
साफ़ साफ़ सुनता हूँ.
सुन ध्यान धर
और इस बात का सम्मान कर
कि तेरा अस्तित्व ही प्रमाण है,
जीवन झूठा नहीं, वह सत्य का संधान है.
अंतिम छोर पर मृत्यु की गोद है
चल कि उसे तलाशना है तुझे,
अपने अस्तित्व का भान तराशना है तुझे.
इतना कहते ही खिल उठा चाँद का मन,
आ गए थे दिनमान, अब खामोश नहीं था गगन.
जीवन की इन टेढ़ी मेढ़ी राहों पर ही कहीं मुक्ति का बोध है.
- अनुपमा पाठक .
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सच का अस्तित्व.
वो 'दो ' थे.
लोग ये जानते हैं
उन्होंने प्रेमविवाह किया,
दिखता भी तो वही है
'पति' को दफ्तर भेजते समय
वो जब यंत्रचलित सा हाथ हिलाती है
और
मुस्कुराती है,
कोई उसे नहीं पढ़ पाता
क्या चल रहा है?
लोगों ने उसके बाद
उसे भी कॉलेज जाते देखा है,
कहीं कोई गड़बड़ नहीं
कोई ऊँची आवाज़ नहीं...
पर पलंग के दो सिरों में बैठे
अपने अपने लैपटॉप में उलझे,
बीच में पसरे बासीपन को
virtual world की
ताजगी में बदलने की कोशिश करते,
अपने जैसे 'वजूद ' तलाशते लोगों के बीच...
दूसरों के दर्द बांटते
खुशियों में साझेदारी करते,
कुछ देर के लिए सही
इंधन जुटा लेते हैं
बढ़ा लेते है अपनी updates
सम्हाल लेते हैं अपने गिरते 'harmone'
के स्तर को...
और तैयार हो जाते है
जिंदगी से जूझने के लिए.
- रश्मि प्रिया.
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अस्तित्व...
लकीरों में बांध कर
खुद को
आदम हव्वा के जायों ने
बही खता बना दिया.
कहीं हाशिये हैं खाली खाली,
कहीं नफे की कालिख,
कहीं नुकसान की लाली...
कभी जोड़ना, कभी घटाना
कभी लिखना, कभी मिटाना.
फिर भी देखो
जब तब जेबें
रहती हैं बिलकुल खाली.
सब कुछ
है यहाँ नक़द अदा करना.
उधर नहीं मिल पायेगा.
कर्मों का लेखा जोखा
कोई साथ नहीं ले जायेगा.
कोई हुंडी नहीं मिलेगी
जिस को ऊपर भुनायेगा.
फिर क्यों इस नरक को चुनते हैं
इच्छाओं के जाल बुनते हैं.
उलझ लिपट भ्रमजालों से
दलालों की क्यों सुनते हैं.
अस्तित्व गहरा समंदर है,
जो अपने ही अन्दर है.
जो भीतर उतर जायेगा,
वो ही मोती पायेगा.
- स्कन्द.
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मैं... मेरा वजूद.
कल शाम
खुद से खुद को कुरेद के
सामने बिठा लिया...
फिर पूछा
क्या मायने हैं?
किस मोड़ पर ये खड़ी है तू?
ज़िन्दगी ये कहाँ आ पड़ी है तू?
टप टप की आवाज़
सन्नाटे को चीर गयी.
अस्तित्व की पर्त दर पर्त छील गयी.
वक़्त की किताब के सब सफे खुल गए...
वो बाबुल की गोद में झूल जाना,
चिंदी चिंदी सी सपनों की गुडिया,
मंद मंद बयार सी वो कड़ियाँ...
वो बस्ते को टांग स्कूल जाना
चूने से सड़क पर रेखाएं बनाना.
फिर एक दिन सब पीछे छूट गया,
एक नया भेष मिला...
नया आँगन, नया देश मिला
कुछ जैसे टूट गया.
हौले हौले खुद को सम्हाला,
साँसों को थामा ही था
कि एक नया खूंटा गड गया
नन्हा सा पौधा गोद खिल गया.
सींच कर उसको
बंधाया हौसलों को ढाढस,
कि अब तो पहचान न बदलेगी
ये रुत अब तो न ढलेगी.
वक़्त की सुइयां बढती रहीं,
आवाजें धीरे धीरे घटने लगीं
तसवीरें भी धुंधलाने लगीं
धीरे धीरे जेहन से मिटने लगीं.
कतरे आंसू के अब सूख गए
एहसासों के समंदर हिलने लगे
बदलने लगे सब ख्वाब,
वजूद को चेहरे मिलने लगे .
क्या कहूं पहचान क्या है,
वो तो चली गयी जाने कब...
यादें और बूढी हो गयी हैं.
प्रश्न मौन बन मुझ से ही पूछता है
क्या यही अस्तित्व है?
- विनय मेहता.
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वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
यकीन मुझपे नहीं है तो राहगीर से पूछ
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
भले मैं एक नख्ले-खुश्क-ए-सहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
कुएं की सिल पे निशां मैं कोई गहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
भले ही आसमां में माह सा ठहरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
मैं अश्के-वक्ते-सफ़र आँख में उतरा ही सही
वजूद मेरा ज़रूरी है, राहगीर से पूछ
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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नख्ले-खुश्क-ए-सहरा : रेगिस्तान में एक सूखा पेड़
माह : चाँद
अश्के-वक्ते-सफ़र : सफ़र पे जाते समय (महबूबा की आँख) का आंसू
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल .
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नख्ले-खुश्क-ए-सहरा : रेगिस्तान में एक सूखा पेड़
माह : चाँद
अश्के-वक्ते-सफ़र : सफ़र पे जाते समय (महबूबा की आँख) का आंसू
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मैं - तू
बीज से पौधा...
पौधे से वृक्ष बनते देखा है
मुझ में, मुझ को...
मैंने.
तेरी ज़मीन पर.
फैली बाँहों में
मौसमी परिंदों को
आते, चहचहाते
उड़ कर जाते देखा है...
हवाओं में अपनी पत्तियों को
सरसराते देखा है.
और महसूस किया है
अपनी जड़ों को फैलते
तेरी ज़मीन पर.
जब किसी रोज़
मेरी फैली बाहें थक जाएँगी,
झर जाएगी छांह,
और परिंदे सब उड़ जायेंगे,
तब
समेट लेना
मुझे खुद में.
वृक्ष से पुनः बीज बनने के उस सफ़र में,
तेरी मिटटी में मिल जाने का ख़याल
सुकून देता है.
जब भी मैं देखती हूँ
मुझ में मुझ को
मैं और शिद्दत से
चाहती हूँ तुझ को.
- मीता
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For today's masters category we are presenting this poem of Lord Tennyson -
In Memoriam
Oh , yet we trust that somehow good
Oh , yet we trust that somehow good
Will be the final end of ill,
To pangs of nature, sins of will,
Defects of doubt, and taints of blood;
That nothing walks with aimless feet;
That not one life shall be destroy'd,
Or cast as rubbish to the void,
When God hath made the pile complete;
That not a worm is cloven in vain;
That not a moth with vain desire
Is shrivell'd in a fruitless fire,
Or but subserves another's gain.
Behold, we know not anything;
I can but trust that good shall fall
At last--far off--at last, to all,
And every winter change to spring.
So runs my dream: but what am I?
An infant crying in the night
An infant crying for the light:
And with no language but a cry.
- Alfred Lord Tennyson .
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14 टिप्पणियां:
hotaa vahee jo manzure khudaa hotaa,
sab rachnaayein to nahee padhee par jo bhee padhee achhee lagee ,samay milte hee padhoongaa,badhaayee
राजेंद्र जी, आपका आभार!
Before the publication of every issue i have this mental sketch...an outline of what i will write in my comment...n everytime i end up expressing anything but that...i mean talking of today i would usually start by acknowledging Masters like Qamar Zaidi ji and Lalit Mohan Pande ji...n though Masters will forever be Masters but the growth i have seen over these 19 issues, in my friends as writers leaves me wondering that which of these is not a Master in their own right?...Pushpendra ji,Rashmi ji,Meeta,Imraan,Skand ji (Sadhana ji n Devesh ji included)...YEH aap logon ka wajood hai that today when i read you i feel emotionally strung and absoluuuuuutely short of words...each of you compliments the other's work..."CHIRANTAN" as a group is an identity by itself...its like they say that Shakespeare without Othello,Lear,Macbeth and Hamlet would be much like Hamlet without a prince...similarly you have DEFINED "Chirantan" with ur creativity and in lieu it has become your identity...and friends like Vinay Mehta ji and Anupama Pathak ji make the journey all the more worthwhile with their august company...:)
In my view we usually suffer when we try and prove our identity as an individual...because we are what we are "in relation" to others around us...and when we learn to accept the fact that relations and circumstances not only test us but also make us a stronger individual and give us not just one but innumerable identities,each a gift of GOD,is the day we can say,"I AM"...with pride...i think i'll just use a 'Master's' help yet again to drive my point...
वो जो
फटे-पुराने जूते गाँठ रहा है
वो भी मैं हूँ...
वो जो घर-घर
धूप की चांदी बाँट रहा है
वो भी मैं हूँ...
वो जो
उड़ते परों से अम्बर पाट रहा है
वो भी मैं हूँ...
वो जो
हरी-भरी आँखों को काट रहा है
वो भी मैं हूँ...
सूरज -चाँद
निगाहें मेरी
साल-महीने राहें मेरी...
कल भी मुझ में
आज भी मुझ में
चारों ओर दिशाएँ मेरी...
अपने-अपने
आकारों में
जो भी चाहे भर ले मुझको...
जिस में जितना समा सकूँ मैं
उतना
अपना कर ले मुझको...
हर चेहरा है मेरा चेहरा
बे-चेहरा इक दर्पण हूँ मैं
मिट्टी हूँ मैं
जीवन हूँ मैं....
~निदा फाज़ली
It would be extreme negligence on my part if i forsake mentioning the choice of the very well thought of link... the pictures with each composition...and the most amazing poetry by Tennyson...as always a very painstakingly perfect issue!!!...Congrats all!!!...:)
शुक्रिया सभी का अभिनन्दन ...........
चिरंतन के सभी साथिओं के लिए .....
सीड़ियों सी नाज़ुक फूलों की यह पंखुडियां
बुलाती है की चल तुझे उस पार ले चलूँ ....
जहाँ बस खुशियाँ है बस्ती ...
आ तुझे सारे अंधेरों से दूर .....
चल तुझे उस पार ले चलूँ .............
उस पार ले चलूँ ...............
यह लीना अलग जी के लिए है ........
"हकीकत यह है की लीना जी अलग ही अंदाज़े बयां करती है
कुरेद कुरेद के दिल के हालों को मासूम लफ़्ज़ों में अदा करती है ....."
चिरंतन से जुड़ना और हाले दिल को बयां करना एक सुखद अनुभूति है ...
सब के साथ खुद को खड़े देखने में सच कहू दिल को बड़ा सकूं मिलता है ...
और यह सच है पुष्पेन्द्र की टिप्पणियां तो सब की मिलती ही है ... लेकिन
जो अलग हट के ..लीना जी देती है उसका इंतज़ार मुझे भी रहता है .. :)
आभार सभी मेरे दोस्तों का की मुझे सब ने अपने दिल में जगह दी ......
अस्तित्व की इस खोज मे में क्या कहू ....
सभी के भावों को एक सूत्र मे पिरोता हु ..
अपने दिल की बातों को यु मे संजोता हूँ ............
" मै हु टुकड़ा वजूद का
बता अस्तित्व मै क्या हु ..?
खफा हु या बस यु ही
समझना क्या सब यह ...
जरूरी तेरा .. ?
भान अस्तित्व का ..
साक्ष्य भी अजीब ....
कड़ियाँ जोड़ी है ..
नहीं गवानी मेने ...
आग सांसों की नहीं भुझानी मेने ....
दहकते है शोले ..
तो एक आस भी है ....
आस की यह अजाब प्यास भी है ...
मिलेंगे सब ..
तो तृष्णा भुझेगी
वजूद तेरे ..
वजूद मेरे ..
सब मै यु ही "हम" बन के
महकती रहेगी ...
महकती रहेगी ....
यु ही बस .............
आभार अभी का ..........
विनय २१/०३/१२ .........
शुक्रिया सभी का अभिनन्दन ...........
चिरंतन के सभी साथिओं के लिए .....
सीड़ियों सी नाज़ुक फूलों की यह पंखुडियां
बुलाती है की चल तुझे उस पार ले चलूँ ....
जहाँ बस खुशियाँ है बस्ती ...
आ तुझे सारे अंधेरों से दूर .....
चल तुझे उस पार ले चलूँ .............
उस पार ले चलूँ ...............
यह लीना अलग जी के लिए है ........
"हकीकत यह है की लीना जी अलग ही अंदाज़े बयां करती है
कुरेद कुरेद के दिल के हालों को मासूम लफ़्ज़ों में अदा करती है ....."
चिरंतन से जुड़ना और हाले दिल को बयां करना एक सुखद अनुभूति है ...
सब के साथ खुद को खड़े देखने में सच कहू दिल को बड़ा सकूं मिलता है ...
और यह सच है पुष्पेन्द्र की टिप्पणियां तो सब की मिलती ही है ... लेकिन
जो अलग हट के ..लीना जी देती है उसका इंतज़ार मुझे भी रहता है .. :)
आभार सभी मेरे दोस्तों का की मुझे सब ने अपने दिल में जगह दी ......
अस्तित्व की इस खोज मे में क्या कहू ....
सभी के भावों को एक सूत्र मे पिरोता हु ..
अपने दिल की बातों को यु मे संजोता हूँ ............
" मै हु टुकड़ा वजूद का
बता अस्तित्व मै क्या हु ..?
खफा हु या बस यु ही
समझना क्या सब यह ...
जरूरी तेरा .. ?
भान अस्तित्व का ..
साक्ष्य भी अजीब ....
कड़ियाँ जोड़ी है ..
नहीं गवानी मेने ...
आग सांसों की नहीं भुझानी मेने ....
दहकते है शोले ..
तो एक आस भी है ....
आस की यह अजाब प्यास भी है ...
मिलेंगे सब ..
तो तृष्णा भुझेगी
वजूद तेरे ..
वजूद मेरे ..
सब मै यु ही "हम" बन के
महकती रहेगी ...
महकती रहेगी ....
यु ही बस .............
आभार सभी का ..........
विनय २१/०३/१२ .........
21 मार्च 2012 1:35 am
विनय जी , आप की कविता हमारे इस अंक का हिस्सा बनी , हमें बहुत प्रसन्नता है . भविष्य में भी आप से सहयोग लेते रहेंगे . हार्दिक धन्यवाद .
लीना जी आप हमेशा इसी तरह हमारा हौसला बढाती रहिएगा . निदा फाजली जी की खूबसूरत नज़्म साझा करने के लिए और आप के खूबसूरत कमेन्ट के लिए हार्दिक आभार .
वाह वाह...............
एक से बढ़ कर एक रचनाये...
बेहतरीन गज़ल भी....
मुझमे जो कुछ अच्छा है सब तेरा है..
पुष्पेन्द्र जी आपका बहुत शुक्रिया...
सादर.
बहुत सुन्दर संकलन !!! Will read one at a time :-)
Thank you very much Giribala. We are glad you liked our effort.
ek saath itana rochak padhane ko ek hi jagah mila ...anand aa gaya .
" आपका आभार "
भावना जी सराहने के लिए ह्रदय से आपका आभार.
राजपुरोहित जी आप का स्वागत है. हमें पढने के लिए धन्यवाद.
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