सोमवार, 2 अप्रैल 2012

अर्घ्य .

गोमुख के हिमाच्छादित                           
उत्तुंग शिखर पर 
समाधिस्थ बैठे योगी 
तुम तक पहुंचना अब 
कठिन ही नहीं , 
असंभव -
हो गया है .


घाटियों में स्थित मेरे दिव्य-
भव्य- उन्नत प्रेम 
और मुक्त करती 
कविताओं के अर्घ्य 
को स्वीकार करो .


द्रौपदी की तरह 
इस यात्रा में पहले 
मुझे ही गिरना होगा 
पर तुमसे मैंने 
'इतना पाया' 
है , कि मृत्यु मलाल नहीं 
उत्सव हो गयी है .


स्वीकारो मेरी 
'अंतिम कविता' 
और कभी न समाप्त होने वाला 
'प्रेम' .


         - दिनेश द्विवेदी .



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