शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

तू गर नहीं होता.


बहुत मुमकिन है 
ख्वाहिशों के सराबों में भटकता रहता.
प्यास दर प्यास...
रेत को आब समझता,
उसे चखता रहता.


वक़्त के गर्म सहराँ में 
तमाम उम्र, 
निगाहों में किसी दरख़्त की हसरत ले कर,
ज़ख़्मी पैरों को घिसटते हुए चलता...


थक के सोता भी अगर, 
तो कहीं ख्वाबों में भटकता रहता.
बहुत मुमकिन है 
ख्वाहिशों के सराबों में भटकता रहता....

गर तू नहीं होता. 

तू है.
अब और कोई ख्वाहिश नहीं है . 


                - मीता .

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