कभी कभी आपको भी ऐसा लगता है क्या, कि हठ की पराकाष्ठा है नश्वर जीवन और भंगुर जगत के सत्य को जानते हुए भी सृजन की बात करना? या बनने-बिगड़ने के इस दस्तूर में समय ही कहाँ मिलता है ये सोचने का कि हमने बनाया या मिटाया. मानो सागर किनारे रेत पे लकीरें खींचता बालक हो, कि जितना वो लकीर बना के मुस्कुराए, उससे दुगने जोर से किलके, जब पानी उस लकीर को बहा ले जाये. जी हाँ, कभी गौर से देखिएगा, पानी लकीर को मिटाता नहीं, वरन उस सारी रेत को ही बहा ले जाता है. जैसे हर बार उस बच्चे के सामने रख देता हो एक नयी स्लेट! लो फिर बनाओ, क्या बनाते हो!
तो फिर क्या ज्यादा महत्वपूर्ण हुआ, रेत या उस पे लिखी लिखावट? या फिर बार बार उस रेत पे लिखने का वह कौतुक जो बालक का मन लगाए हुए है? कहीं वही तो सृजन नहीं अपने मौलिक रूप में, जहां कोई और आकांक्षा नहीं सिवाय उस आनंद के, जो बनाने और मिटने के उन पलों तक ही सीमित है ...
- पुष्पेन्द्र वीर साहिल.
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सर्जना के क्षण .
एक क्षण भर और
रहने दो मुझे अभिभूत,
फिर
जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योति शिखायें
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप!
एक क्षण भर और,
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते!
बूँद स्वाति की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से वज्र जिससे फोड़ता चट्टान को,
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें
एक मुक्तारूप को पकते!
- अज्ञेय .
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सृजन
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सृजन
१
वेद व्यास की तरह
यदि मैं भी मांगूं -
यदि मैं भी मांगूं -
कागज़ के रूप में धरती
कलम के रूप में शेषनाग
तो वह अधूरा ख़त पूरा करूं
जिसके अक्षर-अक्षर अर्थ-
को तुम, जानते तो हो-
पर बाँचते नहीं...!
२
मेरी आस्था में उद्वेग
तुम्हारी आस्था प्रशांत
तुम्हारी धरती सी खामोश
मेरी में मुखर-मौन
तुम दोगे मुझे एक
दिव्यतम कल्पना
जो ले जाएगी मुझे
अनन्यतम भावलोक तक .
- दिनेश द्विवेदी .
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कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
मन की गांठे खोल कर
थोड़ा सा झुकना होगा,
अक्षरों को सहेज कर
उठाने के लिए...
समय की आंच में
थोड़ा सा पकना होगा,
बहना होगा निर्विकार
नदिया कहलाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
उबड़-खाबड़ अनजान
रास्तों पर चलना होगा,
उठाने होंगे ठोस कदम
आगे राह बनाने के लिए...
अमिट अनाम सा दर्द
सहजता से सहना होगा,
उठाने होंगे गम सभी
खुशियों का गाँव बसाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
भूली बिसरी यादों की गलियों को
छू कर गुजरना होगा,
मृत्युतुल्य कष्ट उठाने होंगे
साथ जीवन का पाने के लिए...
कोटि-कोटि नयनों के आंसू चुनते
कभी नहीं थकना होगा,
कुछ सच्चे सुन्दर ख़्वाब सजाने होंगे
और जुट जाना होगा उन्हें बचाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
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कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
मन की गांठे खोल कर
थोड़ा सा झुकना होगा,
अक्षरों को सहेज कर
उठाने के लिए...
समय की आंच में
थोड़ा सा पकना होगा,
बहना होगा निर्विकार
नदिया कहलाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
उबड़-खाबड़ अनजान
रास्तों पर चलना होगा,
उठाने होंगे ठोस कदम
आगे राह बनाने के लिए...
अमिट अनाम सा दर्द
सहजता से सहना होगा,
उठाने होंगे गम सभी
खुशियों का गाँव बसाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
भूली बिसरी यादों की गलियों को
छू कर गुजरना होगा,
मृत्युतुल्य कष्ट उठाने होंगे
साथ जीवन का पाने के लिए...
कोटि-कोटि नयनों के आंसू चुनते
कभी नहीं थकना होगा,
कुछ सच्चे सुन्दर ख़्वाब सजाने होंगे
और जुट जाना होगा उन्हें बचाने के लिए...
फिर मिलूंगी मैं तुम्हें
अक्षर अक्षर में मुस्काती,
कविता हूँ...
यूँ ही कलम की नोक पर नहीं आती!
- अनुपमा पाठक
__________________________________________
मेरे गुनाह मुझे आदमी बनाते हैं .
सृजन की पीड़ा
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मेरे गुनाह मुझे आदमी बनाते हैं .
खुदा मुआफ करे ज़िन्दगी बनाते हैं
मेरे गुनाह मुझे आदमी बनाते हैं .
हवस है सारे जहानों पे हुक्मरानी की
वो सिर्फ चाँद नहीं, रात भी बनाते हैं .
तबाह कर तो दूं ज़ाहिरपरस्त दुनिया को
मेरे गुनाह मुझे आदमी बनाते हैं .
हवस है सारे जहानों पे हुक्मरानी की
वो सिर्फ चाँद नहीं, रात भी बनाते हैं .
तबाह कर तो दूं ज़ाहिरपरस्त दुनिया को
ये आइने भी मेरे लोग ही बनाते हैं .
मैं शुक्रिया अदा करता हूँ सब रकीबों का
मैं शुक्रिया अदा करता हूँ सब रकीबों का
यही अँधेरे मुझे रौशनी बनाते हैं .
मैं आसमान बनाता हूँ मेरी बात करो
मैं आसमान बनाता हूँ मेरी बात करो
यहाँ तो चाँद सितारे सभी बनाते हैं .
- नोमान शौक .
___________________________________________
प्रतिबिम्ब.
तुम जानते हो न
वो कुछ है तुम में ,
तुम्हारे ख़याल की खुशबू ने
याद दिलाया मुझे
कि कहीं एक छोटी सी आशा
मुझमें बैठी है
इस इंतज़ार के साथ
कि तुम्हारे बस एक स्पर्श से
संवरे तन मन
और सृजन हो मेरा .
ढल जाऊं मैं
तुम्हारे ऐसे प्रतिबिम्ब में ...
तुम भी न पहचान सको
कि कौन हो तुम और कौन मैं !!
फिर क्या तुम मेरे सृजन हो
या तुम्हारा सृजन हूँ मैं .
- साधना .
_______________________________________________
वही तो सृजनकार है .
जिसका अंक है कोई, ना ही आकार है,
जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,
कणों कणों से एक सुर में यही पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
ये नगर ये गाम गाम, वन सघन ये धाम धाम,
भोर ये खिली खिली, लालिमा लिए ये शाम।
ये सूर्य चंद्र ये धरा, समुद्र मोतियों भरा।
ये पंछी पंख खोल के, वृक्ष वृक्ष डोलते।
धरती से व्योम तक, जंगल और पुष्प से,
दूर दृष्टि छोर तक, दृष्टि अति अल्प से
जब एक एक सृजन से वो खुद ही साकार है
फिरे तू क्यों ये पूछता, ये किसका कार है!
कणों कणों से एक सुर में यही पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
- इमरान .
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प्रतिबिम्ब.
तुम जानते हो न
वो कुछ है तुम में ,
तुम्हारे ख़याल की खुशबू ने
याद दिलाया मुझे
कि कहीं एक छोटी सी आशा
मुझमें बैठी है
इस इंतज़ार के साथ
कि तुम्हारे बस एक स्पर्श से
संवरे तन मन
और सृजन हो मेरा .
ढल जाऊं मैं
तुम्हारे ऐसे प्रतिबिम्ब में ...
तुम भी न पहचान सको
कि कौन हो तुम और कौन मैं !!
फिर क्या तुम मेरे सृजन हो
या तुम्हारा सृजन हूँ मैं .
- साधना .
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वही तो सृजनकार है .
जिसका अंक है कोई, ना ही आकार है,
जो प्रकाश पुंज है, जो निर्विकार है,
कणों कणों से एक सुर में यही पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
ये नगर ये गाम गाम, वन सघन ये धाम धाम,
भोर ये खिली खिली, लालिमा लिए ये शाम।
ये सूर्य चंद्र ये धरा, समुद्र मोतियों भरा।
ये पंछी पंख खोल के, वृक्ष वृक्ष डोलते।
धरती से व्योम तक, जंगल और पुष्प से,
दूर दृष्टि छोर तक, दृष्टि अति अल्प से
जब एक एक सृजन से वो खुद ही साकार है
फिरे तू क्यों ये पूछता, ये किसका कार है!
कणों कणों से एक सुर में यही पुकार है,
वही तो सृजनकार है, वही तो सृजनकार है।
- इमरान .
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सृजन की पीड़ा
घुटन, कसकन
है असह्य पीड़ा,
समझ लो साधना की
अवधि पूरी है.
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
- कन्हैयालाल नंदन .
- __________________________________________________________________________________________
सृजन कभी नहीं थमता .
तलाशता खुद को
मैं आज निकला ...
दूर तक उफनतेअँधेरे के समंदर में .देखाएक पिंजर ढो रहा थाज़िन्दगी की भारी गठरीलड़खड़ाते क़दमों से ...देखींभूख से बेहाल आंखेंऔर एक रोटी के टुकड़े के लिएखून बहता ...और कुछ आगे बढ़ा तोअस्मत कहीं नीलाम होती देखता हूँ ,कहीं पर इंसानियत कीलग रही हैं बोलियाँ ,और कहीं हंसी ठहाकों मेंबचपन वीरान देखा ...दर्द का एक घूँट कड़वागले में अटका ही थाकि देखता हूँएक कोने में खड़ी ,लाचार सी, बूढी सी वोअपने मैले, फटे आँचल में समेटेजैसे कोई चाँद हो ....एक नन्ही जान ही तो थी ,पीठ पर बस्ता लगायेजैसे उस की आन ही तो थी ,खिलती हुई मीठी मुस्कान ही तो थी .तब जा कर मैं ये समझाहौसले कभी डूबते नहीं हैंमुश्किलों के आगे झुकते नहीं हैं ...अँधेरा लाख उफान मारेसितारे टिमटिमाने से रुकते नहीं हैं ,निराशा के बाद फिरसृजन होता है आशा का ....सृजन कभी नहीं थमता .- विनय मेहता .
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Letter to a child.
This pang of birth,The memory of lifeAs it suffused in youA breath that cameAn aura that flowedThe impressionable child,Opened eyes into this worldA repository of others desires,A vision of its creatorDid he have a choice?Can it follow its heart?What’s a creation of mine?If I can’t carve and chiselIts thoughts and its mindInto the form I wantAnd I a sculptorA baby my wet mudFrom the formless I createAnd then look back.Is that a reflection of me?So elated to seeHe looks and behavesA mirror imageA clone of my desiresA wealth of my needsTrapped in a prisonOf my creationThe power of creationShould give him wingsYou are my creationWhy am I scared?Come, Soar highThe world as your stageAnd power in your handsDon’t be a reflected figmentOf my jaded imaginationGo, sculpt a new yourselfBe your own creation- Sadhana .
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भ्रम भंग
कि एक दिन वहहिमालय सी खड़ी हो जाएगीऔर उस की कोख जन्म देगीमुक्तिदायिनी गंगा को.वेदना हमारी किन्तुमरुस्थल सी फैल गयीनिगल गयी निर्मम वहनिरीह सरस्वती को...चेतना तक न बची.सृजन भला कैसे होकौन भला गीत गाये.- दिनेश श्रीवास्तव .___________________________________________________________
एक शायरजब नज़्म को जन्म देता है...आवाज़ गले में जम जाती हैज़हन में उबलती हैं सैकड़ों ही दूसरी आवाज़ेंहाथो की नमी बह करकाग़ज़ तक आ जाती हैआँखों में दर्द सिसकता हैऔर होठों के साहिलों परएक लफ़्ज़ों का सुनामी बस एहसास निगलने को बेताबसर आता है पहले बाहरया फिर पांव कभी...जब नज़्में उलटी पड़ जाती हैंअशार घुटनों के बल सरकते हैं...मतला आँखें मीचे शायर की गोदी में दिखता है
और सुलगती है यादों की चिल्लम ज़राधीरे-धीरे फिर धड़ दिखता हैनज़्म की सांसें सुनाई पड़ती हैंबंद मुट्ठी से लफ्ज़ गिरने लगते हैं
और फिर पांव उतरते हैं काग़ज़ परखून में सने हाथों सेशायर एक नज़्म का टुकड़ा जुदा करता है ज़हन सेउसे अपना नाम देता हैहाथ फिराता है ज़रा सर पेअपने तखल्लुस का एक टीका लगाता है...तुमने देखा है कभीएक शायरजब नज़्म को जन्म देता हैएक ज़िन्दगी तामीर होती है...- देव ._________________________________________________________यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया थायह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।प्रश्न यही रहता है :दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैंमैं कब, कैसे, उन के अनदेखेउस में सेंध लगा दूँया भर कर विस्फोटकउसे उड़ा दूँ।कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,प्रयोजन मेरा बस इतना है :ये दोनों जोसदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण मेंइन्हें मिला दूँ—दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।- अज्ञेय .__________________________________________________________
निजत्व से विश्वत्व की ओर ...
मन के उच्छ्वास कोशब्दों में पिरोविचारों को साध करअनुभव के हलाहल को पीअश्रु की स्याही सेउकेर देता हैअपनी भावनाओं कोऔर हो जाता हैसृजन कविता काफिर भावनाएंनिजत्व से निकलविश्वत्व की ओरकर जाती हैं प्रस्थान .संगीता स्वरुप ' गीत '_____________________________________________
सपने के बीजों कोतब ही एक पूर्ण शुष्क बीज सेसृजन का पल्लव फूटता हैदुनिया की कुटी पिसी प्रथाओं मेंऔर रुखी सूखी परम्पराओं मेंजब कोई आशा का जल सीचता हैतब ही एक शुष्क बीज सेसृजन का पल्लव फूटता हैअद्भुत होता है सृजन का क्षणइक छोटा सा बीजऔर ताप की जकड़नपानी से तृप्त हो कोरों को तोड़ता हैतब ही एक शुष्क बीज सेसृजन का पल्लव फूटता है- रश्मि प्रिया.___________________________________________The Poet and his Songs .We know not from where;As the stars come at eveningFrom depths of the air;As the rain comes from the cloud,And the brook from the ground;As suddenly, low or loud,Out of silence a sound;As the grape comes to the vine,The fruit to the tree;As the wind comes to the pine,And the tide to the sea;As come the white sails of shipsO'er the ocean's verge;As comes the smile to the lips;The foam to the surge;So comes to the Poet his songs,All hitherward blownFrom the misty land, that belongsTo the vast Unknown.His, and not his, are the laysHe sings; - and their fameIs his, and not his; - and the praiseAnd the pride of a name.For voices pursue him by day,And haunt him by night,And he listens, and needs must obey,When the Angel says: Write!- Henry Wadsworth Longfellow ._______________________________________________
जब ह्रदय को छलनी करेगी,
टीस कोई धमनियों में
रक्त जब बन कर बहेगी,जब अजाना अश्रु कोईअपनी पलकों से चुनेगा ...सृजन होगा .आस लौ जब थरथरायेतीव्र झंझावात में,हाथ को ना हाथ सूझेघोर काली रात में,भोर की किरणों का कोई स्वप्नजब मन में बुनेगा ...सृजन होगा .समर भूमि में ना थक करबैठ जाये हार कर,हाथ में दीपक उठायेआँधियों को पार करपथिक अपने लिएनूतन पथ गढ़ेगा ...सृजन होगा .लडखडायेगा...
तो खोजेगा नया आधार भी,
टूटने पर ही तो पायेगानया आकार भी,गिर के जब जब भी कोईफिर फिर उठेगा...सृजन होगा .- मीता ._____________________________________________
बाक़ी कुछ भी कहना बेमानी हैऔर जो भी कहोगेक्या उस में झलकेगासृजन ?मेरी मानो तो विषय समाप्त करें?- पुष्पेन्द्र वीर साहिल.______________________________________________________For Sargam , we have a very soul stirring song to go with the topic of Creation . Let's listen to this soothing melody by Brian Doerksen - 'Creation Calls', with lyrics .( song suggestion - Leena Alag )
12 टिप्पणियां:
सृजन पर बहुत सुंदर रचनाएँ .... आभार
चिरंतन का यह अंक बहुत ही अच्छा था..सभी रचनाकारों ने अपने मार्मिक भावों से ह्रदय को छू लिया...
हमेशा की तरह बहुत सुंदर संकलन .मातृत्व पर्याय है सृजन का अपने बडे बेटे के जन्म से पहले यू ही एक कविता लिखी थी जो आप लोगो के साथ साझा कर रही हूँ
चारों दिशाओं से
यकायक आवाज़ ये आने लगी
अर्थ बदल रहे है जीवन के
कि पर्याय बदल गए है.
मौन हो जाओ क्षितिज
प्रात का बाल हो जाओ सूर्य
बिखेरो चांदनी चंदा
कि सर्जन कर रही हूँ मैं
सृजन कर रही हूँ मैं
अपने लाल का.
जरा लाली तो लाओ सूर्य
हरीतिमा बिखेरो पौध
तनिक सुगंध भी तो हो
वायु,,,,सुनो कहा हो तुम
जरा पास आ जाओ
हरिण ,तुम्हारी नयन कीप्रतिमता
जरा उतारने दो.
हाँ दंतहीन ओठों में मुस्कराहट
की रेख तो कमल
बिखरने दो .
चाँद अपना रंग तो चढ़ने दो
कि सृजन कर रही हूँ मैं
उफ्नो मत समुद्र
अपना गाम्भीर्य दो
थोड़ी चंचलता कि जरुरत है
लहरों धैर्य से ...
पृथ्वी तुम्हारा गुरुत्व मुझे चाहिए
सौंधी गंध माटी की
कि सृजन कर रही हूँ मैं
घटाओ एक बार उमड़ो
बिजली एक बार कौंधो
तनिक साथ दो मेरा
सृजन है अप्रतिम अनमोल मेरा
अधूरा रह न जाए
समर्पण तो करो जरा
कि सृजन कर रही हूँ मैं
एक योगी का .
चिरंतन का यह अंक आज इतना विविध बन पड़ा है की शब्द नहीं मिलते कुछ भी कहने को ...
आज सच में सृजन हुआ है एक नए रूप नए रंगों का और जो समागम हुआ है वोह विस्मर्निये है अदभुत है .............
मेरे सभी मित्रों को ढेरों बधाइयाँ ..
संगीता जी , ममता और रीना जी आप का तहेदिल से शुक्रिया सब का हौंसला बड़ाने के लिए ...
रीना जी आप की रचना सच में बहुत सुंदर है ...
"चारों दिशाओं से
यकायक आवाज़ ये आने लगी
अर्थ बदल रहे है जीवन के
कि पर्याय बदल गए है.
मौन हो जाओ क्षितिज
प्रात का बाल हो जाओ सूर्य
बिखेरो चांदनी चंदा
कि सर्जन कर रही हूँ मैं "
बहुत खूबसूरती से आप ने जीवन के आरंभ का चित्र खिंचा है ........
As Longfellow says:
"when the angel says: Write!", the poet must obey..., So is the secret of creation!!!
The poems included in this issue are very well compiled covering almost all the realms of creation!
Best wishes to chirantan team:)
Sangeeta Swaroop Ji..Thank you for your appreciation, and for always reading us
Mamta ji, thank you for your kind words.hope you will continue to give your encouragement to us
Reena Ji, Thanks for this sharing this beautiful feeling of creation while having a life within.This should have been in the main issue of Chirantan , we all feel
Vinay ji You have given words to our feelings.Thanks for being an integral part of Chirantan
Anupama Ji , we are grateful for your words and the constant support. Thank you
सृजन बहुआयामी है .. दृष्टि में है या कौतुक में है ..
बहुत शुक्रिया इतनी सारी रचनाएं एक साथ एक ही विषय पे पढवाने का ...
Digambar ji,
dhanyawad aapki sarahna ke liye. keep reading and encouraging us
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