देखा है तुमने
आँगन में लगा पेड़ सूख रहा है.
वो बावली गौरैया
आज कल कहीं नज़र नहीं आती,
चावल के दाने देहरी पर पड़े मुंह चिढाते हैं.
वो नटखट गिलहरी
जो कल तक रोशनदान से झाँका करती थी
आज खुद ही कहीं छुपी बैठी है ...
चूहे भी नदारद हैं
और कव्वे
वो अब किताबों में ही दीखते हैं.
लगता है
घर के अहाते को उम्रकैद हो गयी है.
हैंडपंप भंजो
तो वो मिट्टी उगालता है,
हवा कालिख से लबरेज़ है.
लडखडाती रौशनी
बैसाखी पर चल रही है
और कोहरा गहराता जा रहा है.
लगता है
जल्द ही अँधेरा सब कुछ लील लेगा.
यों तो
हर तरफ सभ्यता का शोर है.
क्या कहूं ?
मैं भी तो इसी संस्कृति का हिस्सा हूँ !
जो कल से छीन कर
आज जी रही है ...
आने वाली नस्लों की उम्मीद पी रही है .
ऐसे ही अगर
आज,
कुछ और व्यूह रचेगा;
शायद
कल के लिए कुछ नहीं बचेगा.
थोड़ी सी तो ईमानदारी
कल के साथ करो...
धरोहर धरा की बचाने की
कुछ तो शुरुआत करो.
- स्कन्द.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें