गुरुवार, 7 जून 2012

नदी तुम सागर बनोगी ...



याद है तुमको ?
वो ऊंची हिमाच्छादित चोटियाँ 
जिनसे निकल,
पर्वतों की तीव्र ढालों पर 
दूधिया, फेनिल हंसी में खिलखिलाती 
राह अपनी खुद बनाती, 
चल पड़ी थीं तुम.
किनारों पर खड़े वो देवदार 
तुमको हँसता देखते तो मुस्कुराते थे.


याद है तुमको ?
वो पहला शिशु झरना 
तुमसे आ कर जुड़ गया था जो... 
फिर न जाने 
कई स्रोते, कई नाले, कई झरने
तुमसे आ कर जुड़ रहे थे,
संग तुम्हारे 
वो भी आगे बढ़ रहे थे.

तुम हरेक चट्टान से टकरा रही थीं, 
पर्वतों को काटती,
एक उत्सुक वेग से जैसे हुलसती
और उफनती, 
बही जाती... 

तुम कभी रूकती नहीं थीं,
चाह कर भी रुक नहीं सकती थीं शायद ...
सत्य यह है .


बढ़ रही थी शनै: शनै:
अब तुम्हारी धार, 
फैलता ही जा रहा था 
कूल का विस्तार,
और अब तुम बह रही थीं शांत, 
सुनती 
अपने ऊपर तैरती नावों के चप्पू ,
एक निस्पृह भाव से स्वीकारतीं 
स्नेह श्रद्धा से समर्पित फूल 
और सब कीच कालिख भी .
एक गहरी वेदना महसूसतीं
प्यासी धरा के लिए 
और सामर्थ्य भर 
उसकी बुझातीं प्यास,
अपनी प्यास को उर में छिपाए ....



नदी क्या तुम थक गयी हो ?
धूप में जलते हुए,चलते हुए 
सैकड़ों झरने समेटे
सोचती हो  
क्यूँ कहीं कोई नहीं तुमको समेटे जो ...
जहाँ विश्राम कर पाओ 
जहाँ ठहराव हो ,
जिसके परे फिर ना कोई भटकाव हो . 


धैर्य मत खोना 
तुम्हारी यात्रा का अंत होगा ...
वहां देखो... 

अनगिनत लहरें सम्हाले , 
अनगिनत मोती छुपाये 
ह्रदय की गहराईयों में, 
थामने तुमको अकल्पित प्यार में 
नील सागर खड़ा है अपने अगाध विस्तार में 
सौंप देना स्वयं को .
न जाने कितनी धाराएं 
समाहित हो के सागर बन चुकी हैं 
तुम भी उस में डूब जाना 
और उसकी थाह में विश्राम पाना.


नदी जब सागर बनोगी, 
देखना 
तुम भी ना तब प्यासी रहोगी.


              - मीता.
                    



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