सोमवार, 25 जून 2012

खँडहर .



यूँ ही चलते चलते 
खिड़की से झाँका 
मानो वो दूर खड़ा खँडहर 
तेजी से मेरे साथ दौड़े जा रहा हो 


अक्सर जब भी मैं 
खिड़की से झांकता हूँ 
तो उसको यूँ ही अपने साथ 
दौड़ता हुआ पाता हूँ 
स्थित अपनी जगह
खंडित ...
फिर भी  जीवंत.


लगता है बहुत कुछ कह जाता है 
आइना दिखलाता ... 
मिलवाता सत्य से ...
परोक्ष में अवचेतन को भेदता ...
सार बतलाता ... 
भूत का भविष्य से 
वर्त्तमान में सामना करवाता .


जिसने सेका है भिन्न भिन्न तापों को 
झेला है आँधियों तूफानों को 
ख़ुशी और दर्द के मुहानों को 
खंडित हुआ ...
फिर भी अडिग ...धरातल से बंधा .
किन्तु दौड़ता हुआ मेरे साथ 
जब जब मैं झांकता हूँ 
खिड़की से .


कभी मुझे लगता है 
मानो तुम ही यात्रारत हो 
और मैं एक स्थान पर अडिग खड़ा 
कर्म में निरत हो 
तुमको निहारता 
जीवन का दिया तुम्हारा पाठ 
निरंतर बदलाव का 
बांचता .


हाँ 
तुम 
खँडहर 
मेरे भीतर हो 
मैंने देखा तुम्हें 
मन की खिड़की से 
जब भी हूँ झांकता .


           - विनय मेहता .

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