अजाने, अचीन्हे
उस ठौर,
किसी मृतप्राय कोने से जहाँ
अचानक निकल कर
आ लिपटता है तुम्हारा स्पर्श।
सुधियों के सीले, बंद कमरों में
मंदिर की घंटियों की तरह
गूँज उठती है तुम्हारी आवाज़,
हवाओं में महक जाती है लोबान,
तुलसी चौरा का बुझा दिया
टिमटिमा उठता है,
और जंग लगी, बंद खिडकियों से
छनने लगती है धूप।
अतीत के जालों पर
ओस की बूंदों सी
चमकती है तुम्हारी हंसी।
स्मृति के भग्नावशेषों में
शेष हो तुम...
धीरे धीरे ढहती
उम्र की दीवार पर
जगह जगह खुदे
तुम्हारे ही नाम की तरह।
- मीता .
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