ऊंची अट्टालिकाओं की भीड़ में
ले रहे हैं सांस,
ख़ामोश खंडहर...
अपनी ख़ामोशी में,
सहेजे हुए
वक़्त की कितनी ही करवटें
कितने ही भूले बिसरे किस्से
बीत चुके
कितने ही पहर...
सन्नाटे में गूंजती
किसी सदी की हंसी
जीर्ण-शीर्ण प्राचीरों के
मौन में फंसी,
इस सदी के द्वार पर
दे दस्तक
दिखलाती है-
वक़्त कैसे अपने स्वाभाव के अधीन हो
ढ़ाता है कहर...
हमेशा ये अट्टालिकाएं भी नहीं रहेंगी
निर्विकार, निर्विघ्न चल रही है प्रतिक्षण
परिवर्तन की लहर...
हर युग के प्रारब्ध में है लिखा हुआ एक खंडहर!
-अनुपमा पाठक
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