गुरुवार, 7 जून 2012

निर्मोही



 समुद्र,
क्यूँ इतने निर्मोही तुम
बस हर सुबह शाम
यूँ धीमे पाँव आ के
आँचल भिगो  जाते हो
तुम्हारे गीलेपन  की खुशबू
कुछ नमकीन सी है
बरसों से बर्फ हुए
जज़्बात जगा जाते हो.
एक दिन मिलना मेरे
उस ताल के पानी से
जिसके निश्छल सतह पे
हुआ अरसा प्रतिबिम्ब देखे
बचपन के रूठने मनाने
से जवानी के अरमानों तक
हर कहानी है समायी उसमें
हर दुआ के अंजाम तलक.

सच कहती हूँ उसकी
गहरायी में जो मिठास है
खारापन ले के तुम्हारा
कैद कर लेगी आगोश में
जाओ मिलो उससे जाकर,
वही जल तुम - वही वो 
उसका मोह तो न छूटे कभी
और तुमसे प्यार ही न हो


- साधना .

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...