तुम जो हो आज खँडहर ,
कल रहे होगे संपूर्ण ...
सौंदर्य वैभव परिपूर्ण .
झुलसती धूप, आंधी तूफ़ान में
न जाने कितनों का आश्रय .
मूसलाधार वर्षा में
न जाने कितनों के सर की छत .
आते थे - जाते थे जो
क्या कह कर पुकारते थे उन्हें तुम ?
आगंतुक ?
अतिथि ?
पाहुने ?
जाने कितनी पदचापें,
कितनी परछाइयाँ,
आज भी समेटे हो
जर्जर अस्तित्व की परतों में तुम .
और अब
जब कि गिर रही हैं तुम्हारी दीवारें,
टूट चुकी है छत,
मकड़ियों ने बुन लिए हैं
ओने कोने में जाले ...
दरवाज़ों खिडकियों को
खा गयी है दीमक...
अब जब तुम नहीं रहे आश्रय प्रदाता,
तो तुम्हारे पास कोई नहीं आता.
हाँ ... मनुष्य ही की तरह
अक्षम हो तुम
रोक सकने में
किसी का आना ...ठहरना ...जाना...
और तुम्हारी ही तरह
बाध्य है वो
देखने को मूक
खुद को टूटते-बिखरते,
घर से खँडहर बनते .
- मीता .
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