सोमवार, 9 जुलाई 2012

आत्मकथ्य सा कुछ ....

मुझे मालूम है 
तुम भी नहीं भूले 'भैयु '
वो बरसात में कागज की नाव चलाना
तुम्हे रोता देख अपनी नाव हटाना
'रथ' के मेले के लिए मिली
अठान्नी में से पूरे तीस पैसे
तुम पर खर्च करते 
बड़प्पन का बोध होता था।

स्कूल के रास्ते में चलते चलते
तुम्हारी स्लेट में दस तक के पहाड़े 
कई बार लिखे हैं
शायद किसी रविवार ही
मै तुम बिन सहेलियों के घर गयी
तुम्हे साइकिल सिखाते 
कई बार कोहनियाँ छिल्वाई
कई बार 'टीप -रेस ' खेलते
तुम्हारे बदले 'दाम ' दिए
देर से आने पर 
'पापा' से छुप कर रात को दरवाजा खोला
कितनी यादों के पाखी है
पन्ने खोलते ही चारों ओर विचरते हैं

आज देखो रहने मिलने और
साथ बैठ कर खाना खाने को
मन बस तरस जाता है
ना रहा मिटटी का चूल्हा
ना मम्मी की रसोई
सब तो पक्का हो गया
जमे हुए मन की तरह


'राखी' और भैयादूज' की नेग के लिए
तुम फ़िर छोटे से हो जाते हो
अपना मनचाहा ले कर ही मानते हो
इसके अलावे भी कभी कभी मिलते हो

सारे दिन जैसे जादूगर की छड़ी से गायब हो गए
कभी ना लौट आने के लिए
सब वही है.
माँ,पापा, दीदी, तुम और छुटकी भी
बस नहीं है 
तो वो निश्छल बचपन
आखिर हम बड़े ही क्यों हुए ...


          - राजलक्ष्मी शर्मा .

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...