सोमवार, 9 जुलाई 2012

खामियाजा ...



बड़े होने के बहुत से खामियाज़े हैं,
मसलन
ख़तम हो जाना उस बेफिक्री का 
जब आप जानते हों 
कि कोई और 
सब सम्हाल लेगा...
चाहे न चाहे 
सर पर आ बैठना जिम्मेदारियों का...
वक़्त की बंदिशें... 
उम्मीद के नर्म पैरों को 
काटती, रगडती  
कायदों की कड़ी ठंडी जंजीरें ...


कब जाने 
जाड़ों की कुनकुनी धूप जैसे दिन 
बन जाते हैं 
जेठ की कड़ी दुपहरी।

दर्दनाक होता है  
किन्तु 
मन के अन्दर 
किसी कोने में 
बचपन का जिंदा रह जाना।

जहाँ इतना कुछ 
अनचाहे ही 
छूट जाता है हाथों से ...
वो भी -
जो मुट्ठियों में भींच रखा था, 
वो भी -
जिसे कभी खोना नहीं चाहा था,
पता नहीं फिर 
ये नालायक 
क्यूँ मर खप नहीं जाता !!

अरसे बाद 
ज़िन्दगी ने समझाया 
बड़े होने की 
सबसे पहली शर्त होती है 
बचपन का मर जाना ...

अब भी सड़क किनारे 
मिचमिची आँखों वाले
झबरे कुत्ते को 
गोद में उठा लेता है ...
अब भी 
किसी बच्चे को देख 
बेवजह मुस्कुराने लग पड़ता है,
किसी और को होती तकलीफ में 
उफन पड़ता है 
सारी रिवायतें तोड़ ...

पर क्यूंकि ये मुमकिन नहीं 
कि आप उस दुनिया मे 
बात करें खुशबू की 
जहाँ गुलदानों में 
कागज़ के फूल सजाये जाते हों,
जहाँ स्नेह 
विद्रूप मुस्कानों में परिभाषित होता हो, 
संवेदना 
मौकापरस्ती का दूसरा नाम हो, 
और भावुकता ...
निरा पागलपन !
तो नितांत आवश्यक है 
बड़ा होने के लिए 
बचपन को मार डालना।

आसार दीखते तो हैं 
धीरे धीरे 
अपनी ही मौत मर जायेगा ...
नहीं तो शायद  
किसी तरह घोटना पड़ेगा गला।
आखिर 
पत्थरों के इस शहर में 
कब तक कांच का पुराना, 
फ़िज़ूल ...
खिलौना ढोते फिरेंगे !!


सरदर्द हटे... 
बेहतर है, टूट ही जाए। 
बड़े होने का 
एक खामियाजा और सही ...
बचपन पीछे छूट ही जाए।

                - मीता .

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