सोमवार, 23 जुलाई 2012

नादाँ बूंदे .



पानियों के छत के नीचे
चलते चलते...
बारिश बात करती रही,
सारी राह
देह से फिसलती
हर बूंद ने वादा किया
अगले 'बरस '
जब वो बरसेंगी
मेरी खुशबु ले
जायेंगी दूर देश .


'बरस' कर पूछेंगी उस
अतीत के नम पन्ने से
क्या बारिश के पानी में
वो भी नमक चखता है ?


उन दो जोड़ी झुकी आँखों की
जो बिछड़ते समय
एक दूसरे को
देख भी नहीं पाई
वजह बारिश थी
या आंसू
कहना मुश्किल है .


मेरी तरह नादाँ बूंदे,
उन्हें पता नहीं
बूंदों का गिरना
बूंदे तय नही करती ...
हवाएं तय करती हैं
बूंदों को बस गिरना है
और नमी बिखेर कर बढ़ जाना है .


         - राजलक्ष्मी शर्मा . 

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